एक था विश्व हिन्दी सम्मेलन

कवि सा'ब

Webdunia
शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2015 (14:23 IST)
राजकुमार कुम्भज

एक था विश्व हिन्दी सम्मेलन, जिसमें एक थी सुधा और एक था चंदर की तर्ज पर। एक थी भाषा और एक था साहित्य का भौंडा बंदोबस्त। यहां भाषा को बुलाया गया था, जबकि साहित्य को जान-बूझकर बेघर और आवारा मान लिया गया था।



मान लिया गया था कि साहित्य दारूकुट्टा होता है इसलिए साहित्य में विचरण करने वाले दारूकुट्टों और दारूकुट्टियों को इस एक विश्व हिन्दी सम्मेलन से दूर रखा गया था। भाषा भली होती है और हिन्दी भाषा तो कुछ जरूरत से ज्यादा ही भली होती है। वह दारू नहीं पीती है। वह भांग पीती है। भांग में विचरण करने वाले भी भले होते हैं। भांग न होती, तो हिन्दी भाषा न होती। हिन्दी भाषा न होती तो, 'मानस के हंस' न होते और जो 'मानस के हंस' न होते तो अमृतलाल नागर न होते। अमृतलाल नागर की कूबड़ इसलिए निकल आई थी, क्योंकि वे 'मानस के हंस' लिखने में डूबे थे और भांग पीकर ही डूबते थे।

बहुत संभव है कि अमृतलाल नागर ने 'मानस के हंस' की रचना शायद इसी दिन के लिए की थी, जब कहा जाएगा कि सनातन-धर्म की रक्षा के लिए हिन्दी अपनाएं और 'मानस के हंस' पढ़ें। शर्त सिर्फ यही है कि दारू पीकर न पढ़ें, भांग पीकर ही पढ़ें। भांग पीकर भाषा को बचाया जा सकता है और धर्म को भी। सा‍हित्य बचे न बचे, उसकी चिंता नहीं करें। साहित्य को बचाने की वैसे जरूरत भी क्या है? वह किस काम का? लीपने का न छाबने का? नेपोलियन ने तो कवियों को डुबो देने तक की सिफारिश की थी और अगर कविता, कहानी, उपन्यास, व्यंग्य आदि को कहीं बचाना ही है, तो वे बेहतर बचा लेंगे, जो दारूकुट्टे अथवा दारूकुट्टियां हैं। नहीं क्या? बाबा बोसलदास की कदम।

चीयर्स। एक था विश्व हिन्दी सम्मेलन, जो कि 'दसवां' था। पहला नागपुर में हुआ था, सन् 1975 में और ये 'दसवां' हूआ भोपाल में सन् 2015 में परंपरा और रूढ़ियों के मुताबिक 'दसवां' महत्वपूर्ण माना गया है। जो पहले दिन नहीं आ सकता है और किसी कारणवश दूसरे दिन उठावने में भी शरीक नहीं हो सकता है। उसके लिए 'दसवां सुविधाजनक किंतु' जरूरी हो जाता है। तो यहां भोपाल में 10, 11, 12 सितंबर को हिन्दी के बहाने हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी का दसवां भी हो गया। रोने वाले रोते रहते हैं और होने वाले होते रहते हैं। पीने वाले पीते रहते हैं।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपना हिन्दी-प्रेम दर्शाते अपने उद्घाटन भाषण में अब तक छप्पन फेम कुल छप्पन शब्द अंग्रेजी के बोले। विश्व हिन्दी सम्मेलन के उद्घाटन की पूर्व संध्या पर हमारे विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह ने साहित्यकारों को 'दारू कुट्टा' होने का प्रमाण-पत्र देकर 'कृतार्थ' कर दिया। वीके सिंह अभी-अभी सेना से सेवानिवृत्त होकर राजनीति में 'मट्ठा' पीने आए हैं। उन्होंने कहा कि लेखक लोग आते हैं, खाते हैं, पीते हैं और 'कविता-फविता' पढ़कर चले जाते हैं। अर्थात बकलम विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह, विश्व हिन्दी सम्मेलन में कथा-कहानी नहीं पढ़ी जाना चाहिए, लेख-निबंध-पर्चे आदि नहीं पढ़े जाना चाहिए और 'कविता-फविता' के लिए तो यहां कोई जगह होना ही नहीं चाहिए। क्या खूब, क्या खूब, क्या खूब? तलवार से तबला बजाइए।

फिर समापन के अवसर पर कवि-सम्मेलन क्यों किया? क्या जरूरत आ गई थी कवि-सम्मेलन की? किस कवि-कलाकार की कलाबाजी का योगदान अथवा बरदान था वह 'पेचान तो कोन' श्रेणी का कवि-सम्मेलन किंतु जय हो गृहमंत्री राजनाथसिंहजी की जिन्होंने अमिताभ बच्चन की जगह इसका समापन कर दिया, लेकिन खबर नहीं बन सके।

एक था विश्व हिन्दी सम्मेलन, जिसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने अपने भाषण में एक दफा भी, किसी भी साहित्यकार का नाम नहीं लिया। उन दोनों के सिर्फ गणमान्य हिन्दी-प्रेमियों को ही संबोधित किया। उन्होंने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि उक्त सम्मेलन हिन्दी-सेवियों का, हिन्दी-सेवियों के द्वारा और हिन्दी-सेवियों के लिए ही आयोजित-प्रायोजित किया जा रहा है। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने फिर उपरोक्त कथन की सार्थक व्याख्या करते हुए, हमें भी अपनी 'ज्ञानात्मक-ऊर्जा' से परिपूर्ण कर दिया कि 'मैं हिन्दी साहित्य की चर्चा नहीं कर रहा हूं, बल्कि हिन्दी भाषा की ही बात कर रहा हूं।' क्या प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री ने यह कहकर साहित्य और भाषा को एक-दूसरे से अलग या विभाजित करने का काम नहीं किया है? क्या किसी भी भाषा को उसके साहित्य के बगैर भी कहीं जाना-पहचाना गया है? सवाल ये भी है कि क्या भाषा के बगैर साहित्य और साहित्य के बगैर भाषा जैसा भी 'कुछ' हो सकता है? क्या भाषा को बनाने में साहित्य की कोई भूमिका नहीं होती है? साहित्य के योगदान के बगैर भाषा का निर्माण कैसे हो सकता है? भाषा का विकास साहित्य से नहीं होता है, तो फिर किससे होता है? साहित्य के बगैर भाषा किसी काम की चीज रह जाती है? क्या वह भाषा भी कोई भाषा हो सकती है जिसमें साहित्य न रचा जाता हो? क्या यह सही नहीं है कि साहित्य ही भाषा की आत्मा है? क्या यह कहना गलत है कि साहित्य से भाषा बनती है, न कि भाषा से साहित्य?

एक था विश्व हिन्दी सम्मेलन, जिसमें 'हवाबाज' के बदअक्स 'हवालाबाज' की जुमलेबाजी थी। कांग्रेस अध्यक्ष ने कुछ ही दिन पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को 'हवाबाज' घोषित करते हुए थोड़ी-सी छेड़खानी क्या कर दी थी कि नरेन्द्र भाई वल्द दामोदर दास मोदी बिलखने लगे थे। भोपाल में दसवां विश्व हिन्दी सम्मेलन था कि विश्व हिन्दू सम्मेलन? समझने वाले बेहतर समझ रहे थे कि जब भाजपा सांसद अनिल माधव दवे को इस सम्मलेन का उपाध्यक्ष बना ही दिया गया था, तो अंतत: और विधिवत सब कुछ हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुत्व ही तो होना था। हिन्दी को हिन्दू से जोड़ने की साजिश से दूसरा कोई बड़ा भाषायी-अपराध नहीं हो सकता है।

विश्व हिन्दी सम्मेलन की आडंबरप्रियता चप्पे-चप्पे की जासूसी और हिन्दी-भाषा के मूलभूत आग्रहों की अनदेखी इत्यादि को बेहतर देखा जाए तो ‍हासिल में जो दिखाई दिया, वह क्या था? क्या वह सब पर्याप्त लोकतांत्रिक था? क्या वहां साहित्य और साहित्यकारों की उपेक्षा और असहमत‍ि के प्रति अत्यधिक असहिष्णुता की भौंडी जिद नहीं थीं? साहित्य के प्रति इस सरकार का ये सद्भाव क्या साहित्य की चिंता का विषय नहीं होना चाहिए? भाषा की तमीज सीखने का सवाल भी बनती है या नहीं?

एक था विश्व हिन्दी सम्मेलन, जिसमें प्रधानमंत्री हिन्दी की बात को कम और हिन्दी से इतर बात कुछ ज्यादा ही कर रहे थे। वहां 'मन की बात' का रूपांतरण 'बिहार-रण' की बात से हो रहा था। ‍जिस दिशि देखूं तित दिशि कमल ही कमल था। थे कुछेक लालबुझक्कड़ भी, मगर वे सभी के सभी कमल की खाल ओढ़े ही थे। अब पछताए होत क्या, जब भाजपा चुग गई खेत? अब केहते फिर रहेंगे कि सब मालूम था कि ऐसी होबे बारो थे, तो फिर गए ही क्यों नाक कटवाने? पांच हजार रुपय्या ढीले हो गए जेब से, सो अलग! लाल-लाल मुंह पे पीला-पीला रंग पुतवाने का शौक किसे चर्राया था!

अटलजी के जमाने में अटलजी के ही एक मंत्री ने कहा था कि हिन्दी को 'आयटम गर्ल' की तरह होना चाहिए, किंतु मजा ‍देखिए कि हिन्दी 'आयटम गर्ल' होने की बजाय भगवा वस्त्रधारी कोई संन्यासिन होती जा रही है। सनातनी ठेके पर भोपाल-ब्रांड के सोमरस की ब्रांडिंग की जा रही है। केंद्र-सरकार जल्द ही शराब-निर्माण के लाइसेंसी अधिकार राज्य सरकारों को सौंपने जा रही है, मन बन गया है। नीति बन रही है। प्रत्येक राज्य सरकार शुद्ध-अशुद्ध का विचार त्यागकर सिर्फ सतयुगी-सनातनी-सोमरस उत्पादन के ही लाइसेंस जारी करेगी। तब एक बार फिर शुरू होने वाले कोपीन-युग को राम-राज्य भी कह सकते हैं और सनातनी सोमरस-युग भी। ये शायद पहली-पहली बार ही हुआ है जबकि एक था विश्व हिन्दी सम्मेलन के भोपाली बार में शर्मीली हिन्दी को बेशर्म दारूकुट्टों और दारूकुट्टियों की गाली-गलौज, छेड़छाड़ और भद्र-अभद्र क्रीड़ाओं, किंतु ऐतिहासिक टिप्पणियों से बचा लिया गया। हिन्दी बहकने से बचा ली ‍गई। देवताओं की कृपा से अमर तेल-विक्रेता महानायक अमिताभ बच्चन के दांत में दर्द नहीं उठा होता तो इस एक विश्व हिन्दी सम्मेलन का स्तर बांस की खपच्चियों पर खड़े रावण के पुतले से भी वीरतापूर्वक और भी ऊपर उठ गया होता। दांत-दर्द ने दगा दे दिया और सनातनी उत्साही लालों को हिन्दी के नटवरलालों से ही संतुष्ट होना पड़ा।

एक था विश्व हिन्दी सम्मेलन, जिसमें हर कोई कोपीनधारी था और हाथ में कमल लिए। संयुक्त राष्ट्र संघ में घुस जाने को आकुल-व्याकुल जो कोई उसके खिलाफ था वह हिन्दी का शत्रु था इसीलिए उसे सम्मेलन से बाहर ही मरने-तड़पने के लिए छोड़ दिया गया था। पतिव्रता-हिन्दी के तमाम‍ हिन्दी-प्रेमी इस एक उम्मीद में अपने-अपने गांव की प्राथमिक पाठशालाओं में 'क' कमल का और 'है' हिन्दू का पढ़ाने के लिए लौट गए कि अगली बार अमेरिका में मिलेंगे। वही कोपीन, वही हिन्दी होगी। वहीं बांस, वही बल्ली होगी। हम लौटेंगे और दोहराएंगे एक था विश्व हिन्दी सम्मेलन जिसमें दारू नहीं, सोमरस था जिसमें हिन्दी लेखक नहीं, हिन्दी-प्रेमी था और जिसमें साहित्य नहीं, भाषा का ‍वीर रस था। नहीं थी तो बस भाषा की तमीज नहीं थी। इस बार ऐसा ही एक था विश्व हिन्दी सम्मेलन। अब आप ही तय कीजिए कि हिन्दी को 'हिन्दी अधिकारियों' और 'हिन्दी-कोपीनधारियों' से बचाना कितना जरूरी है?
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