हिन्दी का केनवास बहुत व्यापक, 100 करोड़ लोगों की भाषा ही राष्ट्रभाषा है

वृजेन्द्रसिंह झाला
हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयास तो स्वतंत्रता के पहले से ही प्रारंभ हो गए थे। मातृभाषा गुजराती होने के बावजूद महात्मा गांधी ने 1935 इंदौर में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा था कि राष्ट्रभाषा होने का अधिकार तो हिन्दी का ही है। हालांकि आजादी के बाद हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की मुहिम 'राजनीति' में उलझकर रह गई। 100 करोड़ से ज्यादा लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा हिन्दी राष्ट्रभाषा ही तो है। राष्ट्रभाषा से मतलब ऐसी भाषा से है, जिसे सबसे ज्यादा बोला जाए।
 
हिन्दी के भूत, वर्तमान और भविष्य को लेकर जब भाषाविद डॉ. राधावल्लभ शर्मा (डी.लिट.) से जब वेबदुनिया ने बात की तो उन्होंने कहा कि जब हम आजाद हुए तब हमारे पास शासन के नियमों के नियमों के नाम पर ब्रिटिश प्रणाली थी। 1950 में संविधान लागू हुआ तो 8वीं अनूसूची में प्रावधान किया गया कि हिन्दी को महत्व मिलेगा और 10 साल तक अंग्रेजी चलेगी। हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के लिए मौखिक रूप से घोषणा भी हुई, लेकिन यह सब कुछ राजनीति की भेंट चढ़ गया।
 
उन्होंने कहा कि इस सबके बावजूद हिन्दी का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विकास हुआ है। विश्व हिन्दी सम्मेलनों के माध्यम दुनिया के तमाम देशों में हिन्दी का विस्तार हुआ है। पहले गिरमिटिया मजदूरों ने किया था, वहीं आज हमारे यहां के लोग काम के लिए दूसरे देशों में जा रहे हैं, उनके माध्यम से हिन्दी, भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों का का प्रचार प्रसार हो रहा है। 
 
हिन्दी राष्ट्र को जोड़ने वाली कड़ी : बुंदेली कवि गंगाधर व्यास पर पीएचडी और 'संत साहित्य में सांस्कृतिक एकता' विषय पर डीलिट डॉ. शर्मा कहते हैं कि हिन्दी भारतीय जीवन मूल्यों और राष्ट्र को जोड़ने वाली कड़ी है। यही बात गांधी जी ने भी कही थी। अब स्थिति यह है कि हिन्दी ने समय के अनुरूप खुद को ढाल लिया है। अब हम केवल भक्तिकाल की रचनाएं नहीं पढ़ते, समकालीन संदर्भों से जुड़ी जिजीविषा भी साहित्य में आ गई है। रोज साहित्य लिखा जा रहा है, हजारों पाठक पैदा हो रहे हैं। फेसबुक, ट्‍विटर और वेबदुनिया समेत अन्य माध्यमों से हिन्दी का काफी विस्तार हुआ है। आज के दौर में अंग्रेजी समानांतर रूप से पूरी दुनिया में खड़ी हो गई है। मंदारिन के बाद सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिन्दी है। 
शर्मा कहते हैं कि दक्षिण भारत में जहां हिन्दी का धुर विरोध है, वहां भी सेवा प्रदाता आराम से हिन्दी समझते हैं। केरल के सेवा प्रदाता हिन्दी बोलते हैं। केवल तमिलनाडु में राजनीतिक कारणों से हिन्दी का विरोध है। इसके अलावा कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। 135 करोड़ आबादी में से 100 करोड़ आबादी हिन्दी में व्यवहार करती है। राष्ट्रभाषा तो हिन्दी बन ही गई है। विश्व हिन्दी सम्मेलनों में शामिल होने वाले दूसरे देशों के लोग आसानी से हिन्दी समझते हैं। हिन्दी ने जिस तरह से तकनीक को आत्मसात किया है, इससे हिन्दी को आगे बढ़ने में काफी मदद मिली है।
 
हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों की मिलावट : हिन्दी दूसरी भाषाओं खासकर अंग्रेजी के शब्दों की मिलावट को लेकर डॉ. शर्मा कहते हैं कि भारत में अंग्रेजी का दबदबा लंबे समय तक रहा है। अंग्रेजों की वेशभूषा, भाषा, संस्कृति, खान-पान हमने स्वीकार किया। यह सब फैशन बन गया। खासतौर पर उच्च मध्यम वर्ग में बोले जाने वाक्य में आधे से ज्यादा शब्द अंग्रेजी के होते हैं। इसी वर्ग के बीच इस तरह की भाषा विकसित हुई है। दरअसल, भाषा गंगा की तरह, जिसमें तमाम भाषाओं और बोलियों के शब्द मिलते रहते हैं। हिन्दी की जड़ें लोक जीवन में हैं। लोक जीवन से हिन्दी को ऊर्जा मिलती है। लोकभाषाएं हिन्दी को और संपन्न बना रही हैं। क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से हिन्दी और प्रबल होती है। 
 
डॉ. शर्मा कहते हैं कि हिन्दी का केनवास काफी व्यापक है। इसने अंग्रेजी के शब्दों को आत्मसात कर लिया है। इसमें सहायक हमारी लिपि है। देवनागरी में हम हूबहू लिख लेते हैं। अंग्रेजी में लिखा अलग तरीके से जाता है जबकि उच्चारण के लिए अलग प्रयास करने होते हैं। देवनागरी लिपि में संसार की सभी भाषाओं को पचाने की शक्ति है। 
 
हिन्दी का भविष्य : हिन्दी के भविष्य को काफी आशान्वित डॉ. शर्मा कहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र ने हिन्दी को यूएन की भाषा के रूप में स्वीकार किया है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी की प्रतिष्ठा बढ़ी है। हमारे सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में जो बदलाव हुआ है, उससे भी हिन्दी को लाभ हुआ है। नई शिक्षा पद्धति में 5वीं कक्षा तक पढ़ाई मातृभाषा कराने की बात कही गई है। दक्षिण भारत, पूर्वोत्तर राज्यों में स्थानीय भाषा के साथ हिन्दी, अंग्रेजी का अध्यापन भी प्रारंभ हो गया। यह शुभ संकेत हैं। अगले 50 वर्ष भी नहीं लगेंगे, हम हिन्दी को संसार में सर्वश्रेष्ठ स्थान दिलाने में सफल होंगे।

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