साल 2016 : भाजपा के हौसले रहे बुलंद...

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नई दिल्ली। अगर भाजपा के हौसले वर्ष 2016 में असम विधानसभा चुनाव में जीत के बाद पहली बार सरकार बनाने के बाद बुलंद हुए हैं तो वहीं पार्टी में उच्च स्तर पर यह सवाल भी है कि कहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘दुस्साहसी कदम’ नोटबंदी अगले साल होने जा रहे विधानसभा चुनावों, खासकर उत्तर प्रदेश में भारी तो नहीं पड़ जाएगा।
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के लिए साल 2016 अच्छा रहा। दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनाव में वर्ष 2015 में मिली हार के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी सहित कुछ नेताओं ने उनके नेतृत्व पर उंगली उठाई थी, लेकिन केरल और पश्चिम बंगाल, असम और मध्यप्रदेश में संपन्न उप चुनावों में तथा राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में स्थानीय निकाय चुनावों में उसने जीत हासिल कर ली।
 
केरल और पश्चिम बंगाल वैसे भी वह राज्य हैं, जहां भाजपा कभी मजबूत नहीं रही। महाराष्ट्र में और छोटे ही सही लेकिन चंडीगढ़ स्थानीय निकाय चुनाव में पार्टी ने जीत तब हासिल की जब नोटबंदी को लेकर वह विपक्ष के निशाने पर थी।
 
अगले साल के शुरू में उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव होने हैं। निश्चित रूप से इन चुनावों में नोटबंदी मुख्य मुद्दा होगा। नोटबंदी को लेकर लामबंद हो रहे विपक्ष ने इसे जनविरोधी कदम बताया है।
 
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा में भाजपा की साख दांव पर है। मणिपुर में वह कभी सत्ता में नहीं रही लेकिन वह क्षेत्रीय दलों से गठजोड़ कर सत्ता पर नजर बनाए हुए है।
 
पंजाब और गोवा में आप की मौजूदगी ने परंपरागत चुनावी समीकरण बिगाड़ रखा है। दोनों ही राज्यों में भाजपा सत्ता में है और कांग्रेस उसकी परंपरागत प्रतिद्वन्द्वी है। उत्तर प्रदेश से लोकसभा में 80 सांसद हैं जबकि शेष चार राज्यों के कुल सांसदों की संख्या 22 है।
 
जनवरी में दूसरी बार भाजपा अध्यक्ष की कमान लेने के बाद शाह राज्यों में संगठन को मजबूत बनाने में जुटे रहे क्योंकि पार्टी को 2019 में लोकसभा चुनाव का सामना करना है।
 
भाजपा नेताओं का हालांकि मानना है कि पार्टी के लिए अपने दम पर पश्चिम भारत में, चुनाव में एकतरफा जीत हासिल करना मुश्किल होगा और क्षेत्रों में नुकसान का असर तटीय और पूर्वोत्तर राज्यों में पड़ सकता है।
 
तमिलनाडु में भाजपा का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा, लेकिन अन्नाद्रमुक प्रमुख जे जयललिता के असामयिक निधन के बाद दोनों दलों के नेतृत्व एक-दूसरे के करीब आ गए। राज्य प्रमुखों की नियुक्ति करते हुए भाजपा ने जातीय समीकरणों को ध्यान में रखा।
 
शाह ने दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष पद पर मनोज तिवारी की नियुक्ति कर सबको चौंका दिया। तिवारी को बाहरी व्यक्ति माना जाता है, लेकिन शाह ने संकेत दे दिया कि चुनाव में असफल रहे नेतृत्व पर उन्हें भरोसा कम ही है।
 
असम की कमान सर्बानंद सोनोवाल के हाथ सौंपी गई तो गुजरात में पटेल आरक्षण आंदोलन को काबू न कर पाने के बाद पार्टी के अघोषित नियम के अनुसार 75 साल की हो चुकीं आनंदी बेन से इस्तीफा लेकर राज्य का मुख्यमंत्री पद विजय रूपाणी को सौंप दिया गया। सोनोवाल और रूपाणी दोनों ही शाह के करीबी माने जाते हैं। (भाषा) 
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