असुरक्षित खेतों की सुरक्षित फसल अलसी

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बात करीब पाँच वर्ष पहले की है। कृषक सम्मेलन के एक आयोजन में दोपहर को प्रश्नोत्तर सत्र में कुछ कृषकों ने सवाल किया, 'हमारे खेत गाँव से दूर हैं, जहाँ रबी में आसपास के खेत खाली रहते हैं, हम कौन-सी फसल ले सकते हैं? मैंने प्रतिप्रश्न किया क्या वहाँ आपके खेत में सिंचाई के साधन हैं? उत्तर था कि सिंचाई तो है, परंतु एक या दो सिंचाई ही की जा सकती है।

कुछ इसी तरह की परिस्थिति आपके खेत की भी हो यानी सीमित सिंचाई तो उपलब्ध है, किंतु सुरक्षा (विशेषकर पशुओं से) नहीं है तो इसके लिए सबसे उत्तम विकल्प अलसी की फसल है। अलसी के खेत को पशु चरकर नुकसान नहीं करते, क्योंकि इसके पौधों के तने में सेल्यूलोज युक्त एक विशेष प्रकार का रेशा पाया जाता है।

रेशे का उपयोग : यद्यपि इस रेशे का व्यावसायिक उपयोग केनवास, बेग्स (झोले), दरी आसन आदि मोटे वस्त्र बनाने के लिए किया जाता है। रेशे को 'लिनेन फाइबर' कहा जाता है। इसे निकालने के बाद तने के जैविक पदार्थ से कागज की लुगदी तैयार कर कागज बनाया जाता है।

बीज भी है उपयोगी : अलसी के बीजों से प्राप्त तेल की जल्दी सूखने की विशेषता के कारण इससे वार्निश, पेंट एवं साबुन आदि तैयार किए जाते हैं। तेल निकालने के बाद बची हुई खली पशुओं को पौष्टिक खुराक एवं दूध में चिकनाई की मात्रा बढ़ाने वाले आहार के रूप में खिलाई जाती है। यह खली पशुओं के लिए प्रोटीन तथा चिकनाई (फेड्स) का अच्छा साधन है। इसकी खली में लगभग ३ प्रतिशत तेल और २६ प्रतिशत प्रोटीन पाया जाता है। खराब या पानी लगी हुई खली का उपयोग फसलों के लिए जैविक खाद के रूप में भी किया जाता है। अलसी की खली में ५ प्रतिशत नत्रजन, १.४ प्रतिशत फास्फोरस तथा १.८ प्रतिशत पोटाश पाया जाता है। इस मात्रा में फसल की किस्म के अनुसार थोड़ा बहुत अंतर भी हो सकता है।

उन्नात किस्में : अलग-अलग प्रदेशों में अलसी फसल पर काफी अनुसंधान हुआ है। इसके फलस्वरूप अनेक किस्में क्षेत्र विशेष के लिए विकसित की गई हैं। संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है-

जवाहर- १ : मध्यम आकार के भूरे बीज वाली यह किस्म ११५-१२० दिन में पक कर तैयार होती है। इसमें लगभग ४४ प्रतिशत तेल होता है। औसत उपज ९०० किग्रा प्रति हैक्टेयर है। यह रतुआ रोधी तथा म्लानि व चूर्णिल आसिता (भभूतिया, पाउडरी मिलड्यू) के लिए मध्यम रोधी है।

जवाहर -७ : इसके बीज बड़े, हल्के भूरे होते हैं। यह ११५-१२० दिन में पककर तैयार होती है। यह धान वाले क्षेत्रों में 'उतेरा' फसल के रूप में उगाए जाने के लिए उपयुक्त किस्म है। इसके बीजों में ४३ प्रतिशत तेल होता है।

जवाहर- १७ : यह किस्म भी ११५-१२० दिन में पककर तैयार होती है। वर्षा निर्भर क्षेत्रों में इसकी उपज ७००-८०० किलोग्राम व सिंचाई के साथ १२००-१३०० किलोग्राम प्रति हैक्टेयर मिल जाती है। यह भी तीन रोगों रतुआ, म्लानि व चूर्णिल आसिता के लिए मध्यम रोधी से सहनशील है। इसके बीजों में ४३ प्रतिशत तेल होता है।

जवाहर-२३ : यह किस्म भी तीनों रोगों के लिए सहनशील है। इसे पकने में ११५-१२० दिन लगते हैं। इसकी उपज १००० किलोग्राम प्रति हैक्टेयर तक मिल जाती है।

खेत की तैयारी कैसे करें : अलसी का बीज अन्य कई फसलों की अपेक्षा छोटा होता है, इसलिए खेत की तैयारी इस तरह करे कि मिट्टी का पोत बारीक हो जाए। खेत में पिछली फसल मूँगफली या अन्य खुदाई वाली हो तो खेत के आड़ी एवं खड़ी दिशा में एक बार कल्टीवेटर व दो बार पाटा चलाना पर्याप्त होगा। अन्यथा मिट्टी पलटने वाला हल, कल्टीवेटर व पाटा चलाना आवश्यक होता है।

बोने का समय : इसके बोने का उपयुक्त समय सितंबर अंत से लेकर अक्टूबर के द्वितीय सप्ताह तक है। इसको बोते समय खेत में नमी होना, मौसम में कुछ ठंडक होना आवश्यक है। इन दोनों के बीच सामंजस्य होना आवश्यक है। बहुत जल्दी बोने पर गरमी व अधिक नमी में पौधे अंकुरणशील बीज को नुकसान हो सकता है या नवजात पौधे सूख जाते हैं।

अधिक देर करने पर खेत में नमी कम होने से अंकुरण विपरीत रूप से प्रभावित हो सकता है।बोने के पहले बीज को ढाई ग्राम थायरम या बाविस्टीन प्रति एक किलोग्राम बीज के साथ मिलाकर उपचारित किया जाता है।

आजकल बीज उपचार के लिए इन फफूँदनाशकों की अपेक्षा जैविक फफूँदनाशक ट्राइकोडर्मा, विरिडि (प्रोटेक्ट) का उपयोग किया जाना अधिक उपयुक्त माना जाता है। इसके लिए भी प्रति एक किलोग्राम बीज के लिए ४ से ५ ग्राम ट्राइकोडर्मा विरिडि (प्रोटेक्ट) मिलाकर बोएँ।

एक हैक्टेयर (ढाई एकड़) के लिए २५-३० किलोग्राम बीज की आवश्यक होती है। इसकी बोवनी ३० सेमी (एक फुट) दूरी पर कतारों में करें। बीज छोटा होने के कारण अधिक गहराई में नहीं जाना चाहिए। बीज को ३-४ सेमी से ज्यादा गहरा नहीं बोएँ। बीज बोने के बाद हल्का पठार चलाएँ, जिससे बीज व मिट्टी के बीच खाली या हवा युक्त स्थान न रहकर वे एक-दूसरे के संपर्क में आ जाएँ, अच्छे अंकुरण के लिए यह आवश्यक है।

इस फसल में मौसम व मिट्टी की किस्म के अनुसार १५ से २० दिन के अंतर पर निंदाई-गुड़ाई कर दी जाती है। इसके लिए ४०-६० किग्रा नत्रजन, ३० किग्रा स्फुर, २० किग्रा पोटाश एवं ३० किग्रा गंधक प्रति हैक्टेयर देने की सिफारिश की गई है। प्रारंभिक तौर पर १००-१५० क्विंटल गोबर खाद या कंपोस्ट खेत में मिलाएँ। पोषक तत्व रासायनिक उर्वरकों की अपेक्षा जैविक (ग्लूकोनेट आधारित) उर्वरकों से देना अधिक लाभदायक होगा।

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