कुंदरू को तिंदूरी भी कहा जाता है। यह ककड़ी वर्ग यानी कुकुरबिटेसी परिवार की सदस्य है। इसे ग्रीष्मकालीन (मार्च से जून) या बरसाती (जून-जुलाई से अक्टूबर-नवंबर) फसल के रूप में उगाया जा सकता है। इसे पुरानी लताओं की कटिंग से बोया जाता है। एक बार उगाए जाने पर सही देखरेख, पोषण एवं पौध संरक्षण के साथ पाँच-छः साल तक इससे फल प्राप्त किए जा सकते हैं।
इसी वर्ग के अन्य सदस्यों की अपेक्षा यह कम या अधिक पानी को सहन कर सकती है।
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यह मूलतः भारत की वनस्पति है इसीलिए देश के अधिकांश प्रांतों में इसे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। कुंदरू की फसल से अधिक उपज प्राप्त करने के लिए इसकी उन्नत किस्म, पर्याप्त पोषण एवं पौध संरक्षण के साथ ही उचित प्रबंधन जरूरी है जिसमें इसकी लताओं के फैलाव के लिए अंगूर के उद्यानों के समान टेलीफोन पद्धति से तारों को बाँधा जाता है।
इसकी लताओं को लगाने के लिए पेंसिल की मोटाई की लगभग एक फुट (30 सेमी) लंबी कलमें लगाई जाती हैं। इन्हें लगाने के लिए आधा मीटर गोलाई का आधा मीटर गहरा गड्ढा तैयार कर लिया जाता है। इन गड्ढों की आपसी दूरी मिट्टी व मौसम के अनुसार 2 से 3 मीटर रखी जाती है।
इन गड्ढों में मिट्टी, गोबर, खाद, पत्तियों के चूरे की बराबर मात्रा के मिश्रण के साथ 1-1 किलोग्राम नीम या करंज खली भी मिला दी जाती है। गड्ढा भरने के बाद इसमें कलम रोपकर सिंचाई कर दी जाती है।
कुंदरू एक स्वादिष्ट सब्जी होने के साथ पौष्टिक भी है। आयुर्वेदिक दृष्टि से इसके मूल (जड़) वमनकारक, रेचक, शोधघ्न (सूजन को कम करने वाले) होते हैं। इसके फल गरिष्ठ, मधुर व शीतल होते हैं।
इनकी रोपाई फरवरी के दूसरे सप्ताह से लेकर मार्च के प्रथम सप्ताह तक कर दी जाना आवश्यक है। पौध पोषण के लिए प्रति एक गड्ढा दो डलिया पौध मिश्रण भरें। पौधे जम जाने व स्थापित हो जाने के बाद यानी रोपाई के लगभग 25-30 दिन बाद प्रति गड्ढा 500 ग्राम यूरिया, आधा किग्रा सुपर फॉस्फेट, 250 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश मिलाकर गड्ढे की मिट्टी के साथ मिलाकर सिंचाई करें। लताएँ बड़ी होने पर इन्हें टेलीफोन पद्धति से बनाए गए खुले मचान पर चढ़ाकर प्रत्येक शाखा को बाँधकर फैलाते जाएँ। इनमें समय-समय पर निंदाई, गुड़ाई व सिंचाई करते रहें।
मिट्टी व मौसम के अनुसार 5 से 10 दिन के अंतर पर सिंचाई करते रहें। फूल और फल आते समय क्यारी में लगातार नमी बनी रहनी चाहिए। अधिक गीलापन, लताओं की जड़ों के लिए हानिकारक होता है। लगातार गीलापन रहने से पौधों की जड़ों का श्वसन रुक जाता है और पौधों की बढ़वार रुक जाती है।
फूल और फलन के समय कीड़ों की रोकथाम के लिए 5 मिली नीम तेल प्रति 1 लीटर पानी व 2 ग्राम डिटर्जेंट मिलाकर छिड़कें। किसी भी तेज कीटनाशक रसायन के प्रयोग से फूलों के परागण पर और अंततः उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसमें फल 5 से 7 माह में लगना शुरू होकर लगातार 4-5 माह तक मिलते रहते हैं। फलों की तुड़ाई कच्चे व नरम रहते ही करते रहना आवश्यक है। सामान्यतः प्रति 3 से 5वें दिन फलों की तुड़ाई की जाती है।
विटामिनों की भरमार : यह एक स्वादिष्ट सब्जी होने के साथ पौष्टिक भी है। इसके प्रति 100 ग्राम खाद्य अंश में लगभग 4.6 प्रश कार्बोहाइड्रेट्स, 1.4 प्रश प्रोटीन एवं प्रति 100 ग्राम में 10 मिग्रा कैल्शियम, 30 मिग्रा फॉस्फोरस, 0.7 प्रश लौह तत्व, 84 अंतरराष्ट्रीय इकाई विटामिन ए के अलावा विटामिन बी-1, बी-2 विटामिन सी आदि पाए जाते हैं।
आयुर्वेदिक दृष्टि से इसके मूल (जड़) वमनकारक, रेचक, शोधघ्न (सूजन को कम करने वाले) होते हैं। इसके फल गरिष्ठ, मधुर व शीतल होते हैं। कुंदरू के कडुवे फल साँस रोगों, बुखार एवं कुष्ठ रोग के शमन के लिए उपयोग में लाए जाते हैं। मधुमेह में इसकी पत्तियों का चूर्ण जामुन की गुठली के चूर्ण व गुड़मार के साथ दिया जाना लाभदायक है।