अमिताभ का बचपन

पंतजी न आते तो अमिताभ का नाम इंकलाब होता

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उत्तरप्रदेश के बस्ती जिले का पुराना नाम श्रावस्ती था। श्रावस्ती इसलिए, क्योंकि श्राव नामक राजा ने इसे बसाया था। श्रावस्ती छोड़ कर जो कायस्थ देश में अन्यत्र जा बसे, वे श्रीवास्तव कहलाए, जैसे मथुरावाले माथुर। कवि हरिवंशराय बच्चन ने अगर अपना उपनाम 'बच्चन' नहीं चुना होता, तो वे हरिवंशराय श्रीवास्तव कहलाते। वे पिछली सात पीढ़ियों से इलाहाबाद के वासी थे, जहाँ हिन्दी सिनेमा के सबसे ज्यादा चमकीले सितारे अमिताभ बच्चन का 11 अक्टूबर 1942 की शाम को जन्म हुआ। हिन्दी काव्य में हालावाद के प्रवर्तक हरिवंशराय और उनका परिवार अत्यंत धार्मिकप्रवृत्ति का है और उनके घर में रामचरित मानस तथा श्रीमद् भगवत् गीता का नियमित पाठ होता है। संस्कारवश स्वयं अमिताभ भी गीता-रामायण का नियमित पारायण करते हैं। अमिताभ की माता श्रीमती तेजी बच्चन जन्मना सिख थीं, लेकिन वे भी हनुमानजी की अनन्य भक्त थीं। कवि बच्चन से तेजी सूरी का विवाह जनवरी 1942 में ही हुआ था और उसी साल उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हो गई। 
 



















तेजी से कवि बच्चन का दूसरा विवाह हुआ था। इससे पहले उनकी पत्नी श्यामा पूरे दस साल तक बीमार रहने के बाद परलोक सिधार गई थीं। तेजी से बच्चनजी की मुलाकात बरेली में एक मित्र ज्ञानप्रकाश जौहरी के घर हुई, जिनकी पत्नी लाहौर के फतेहचंद कॉलेज में प्राचार्य थीं और तेजी उसी कॉलेज में मनोविज्ञान पढ़ाती थीं। तेजी बच्चन की कविताओं की प्रशंसक थीं, इसलिए दोनों के बीच प्रेम और विवाह होने में देर नहीं लगी। 24 जनवरी 1942 को इलाहाबाद के जिला मजिस्ट्रेट की अदालत में उन्होंने अपना विवाह रजिस्टर कराया। इस विवाह में वर-वधूदोनों ने 4-4 सौ रुपए खर्च किए थे। उस समय के रूढ़िवादी समाज में यह एक विवादास्पद विवाह था। तेजी के पिता खजानसिंह लंदन से बैरिस्टरी करके आए थे और उन्होंने लायलपुर में प्रैक्टिस की थी, जहाँ तेजी का जन्म हुआ। सरदार खजानसिंह बाद में पटियाला राज्य के रेवेन्यू मिनिस्टर बने और अंततः लाहौर जा बसे। तेजी एक मातृविहीन बालिका थीं। शुरू में कवि बच्चन से तेजी का विवाह खजानसिंह को पसंद नहीं आया था, लेकिन बाद में संबंध सामान्य हो गए। 
 
सन्‌ 1942 की जिन सर्दियों में अमिताभ बच्चन का जन्म हुआ, बच्चन दंपति इलाहाबाद में बैंक रोड पर मकान नंबर 9 में रहता था। कविवर सुमित्रानंदन पंत भी सर्दियों में अलमोड़ा छोड़कर इलाहाबाद आ जाते थे। वे बच्चनजी के घर के निकट रहते थे। नर्सिंग होम में पंतजी ने नवजात शिशु की तरफ इशारा करते हुए कवि बच्चन से कहा था, 'देखो तो कितना शांत दिखाई दे रहा है, मानो ध्यानस्थ अमिताभ।' तभी बच्चन दंपति ने अपने पुत्र का नाम अमिताभ रख दिया था। तब बच्चनजी के एक प्राध्यापक मित्र अमरनाथ झा ने सुझाव दिया था कि भारत छोड़ो आंदोलन कीपृष्ठभूमि में जन्मे बालक का नाम 'इंकलाब राय' रखना बेहतर होगा, इससे परिवार के नामकरण शैली की परंपरा भी कायम रहेगी। झा ने इसी तरह बच्चनजी के दूसरे पुत्र अजिताभ का नाम देश की आजादी के वर्ष 1947 को देखते हुए आजाद राय रखने का सुझाव दिया था। लेकिन पंतजी ने कहा था, 'अमिताभ के भाई का नाम तो अजिताभ ही हो सकता है।' कालांतर में माता-पिता के लिए अमिताभ सिर्फ 'अमित' रह गया और उनकी माता उन्हें मुन्ना कहकर पुकारती थीं। तेजीजी की बहन गोविंद ने अजिताभ का घरेलू नाम 'बंटी' रखा। 
 
ढाई साल की उम्र में अमिताभ लाहौर रेलवे स्टेशन पर अपने माता-पिता से बिछड़कर ओवरब्रिज पर पहुँच गए थे, जब वे अपने नाना के घर मीरपुर जा रहे थे। बच्चन दंपति ने पहली बार अपने बेटे को सीख दी थी कि माता-पिता को बताए बगैर बच्चों को कहीं नहीं जाना चाहिए। इस बिछोह के समय तेजी टिकट लेने गई थीं और अमित पिता का हाथ छूट जाने से भीड़ में खो गए थे। मीरपुर में अपने नाना खजानसिंह के लंबे केश देखकर अमित को पहली बार आश्चर्य हुआ था कि ये औरतों जैसे लंबे बाल क्यों रखते हैं। लेकिन तेजी ने अपने बच्चों को सिख बनाए रखने की कोई चेष्टा नहीं की। श्रीवास्तव परंपरा के अनुसार अमित का चौल-कर्म (मुंडन संस्कार) विंध्य पर्वत पर देवी की प्रतिमा के आगे बकरे की बलि के साथ होना चाहिए था, मगर बच्चनजी ने ऐसा कुछ नहीं किया। 
 
दुर्योग देखिए कि बालक अमित के मुंडन के दिन ही एक सांड उनके द्वार पर आया और अमित को पटकनी देकर चला गया। अमित रोया नहीं, जबकि उसके सिर में गहरा जख्म हुआ था और कुछ टाँके भी लगे थे। वे इतना जरूर कहते हैं कि यह भिड़ंत उनकी उस सहन शक्ति का 'ट्रायल रन' थी, जिसे उन्होंने अपनी आगे की जिंदगी में विकसित किया।

उन्हीं दिनों इलाहाबाद में न्यायाधीशों और प्राध्यापकों की पत्नियों ने ऑल इंडिया वीमॅन्स कॉन्फ्रेंस नामक संस्था की स्थापना की थी। शुरू में तेजी इस संस्था की साधारण सदस्य थीं, लेकिन आगे चलकर इसकी सेक्रेटरी बनीं। यह संस्था गायन-वादन और नाटकों का आयोजन करती थी। तेजी, लाहौर के फतेचंद कॉलेज में भी नाटकों में सक्रिय भाग लेती थीं। इसी संस्था द्वारा मंचित 'अनारकली' नाटक में तेजी ने मुख्य भूमिका निभाई थी, जिससे वे शहर में चर्चित हो गई थीं। वह दूसरे विश्व युद्ध का समय था। कवि बच्चन ने अपनी पत्नी को नेताजी ब्रिगेड में भी शामिल कराया, क्योंकि वे स्वयं भी महू और सागर में फौजी प्रशिक्षण लेकर शिक्षक होने के साथ-साथ सेकंड लेफ्टिनेंट और फिर पूरे लेफ्टिनेंट बनकर कंधे पर दो सितारे लगाने के हकदार हो चुके थे। 
 
एक बार नेताजी ब्रिगेड की परेड नेहरू घराने के पुश्तैनी मकान 'आनंद भवन' में हुई और इसी मौके पर तेजी बच्चन और इंदिरा नेहरू की पहली भेंट हुई। इसके बाद भारत कोकिला सरोजिनी नायडू ने, जो 'मधुशाला' के कवि बच्चन की मित्र थीं, बच्चन दंपति को बाकायदा नेहरू परिवार से परिचित कराया था। तब इंदिराजी का फिरोज गाँधी से विवाह नहीं हुआ था।
 
वर्ष 1947 में अजिताभ के जन्म के समय घर पर आए सुमित्रानंदन पंत से अमिताभ ने कौतूहलवश पूछा था, 'आप कौन हैं', तब युवा कवि पंत ने उत्तर दिया था, 'मैं ही लक्ष्मण हूँ और शत्रुघ्न भी।' साथ ही तेजी से कहा था, 'तुम्हारा बालक तो बड़ा सुंदर है।' तब हरिवंशराय बोले थे, 'इसके सीधे हाथ में ज्यादा ताकत है।' पंतजी ने कहा था, 'लेखनी सीधे हाथ में ही रखनी चाहिए। सरस्वती का आशीर्वाद दाएँ हाथ को प्राप्त है।' जाहिर है, तब इस तरह की बातें अमिताभ को समझ में नहीं आती थीं। उन्हीं दिनों देश आजाद हुआ और बच्चन परिवार अडेल्फी के मकानमें रहने लगा था। बाद में वे क्लाइव रोड पर 17 नंबर के मकान में चले गए। यह एक महलनुमा मकान था। इसी मकान में रहते हुए अमिताभ ने पड़ोसी लड़के नरेश और शशि को अपना दोस्त बनाया। यहीं जाम (अमरूद) के पेड़ पर चढ़ने से अमिताभ जीवन में एक बार फिर धराशायी हुए। अमित को सिखाया गया कि जैसे खेलने के लिए एक निश्चित वक्त होता है, उसी तरह पढ़ने के लिए भी होता है। 
 
यहीं रानी के बाग में प्रवेश पाने की खातिर अमित ने घर में से चार आने की चोरी की थी, क्योंकि लालची दरबान ने अमित को झाँसा दिया था कि चार आने लेकर आओ, तो अंदर जाने देंगे। उस दरबान ने अमित से पैसे छीनकर भगा दिया था। बाद में चोरी भी पकड़ी गई थी और पिता ने अमित को समझाया था कि दुनिया में चोर को कोई पसंद नहीं करता। जहाँ तक राजबाड़े में रहने वाली रहस्यमयी स्त्री का सवाल है, बेतिया की उस रानी को अभी तक किसी ने नहीं देखा है। इसी घर में रहते हुए अमिताभ को सेंट मैरीज स्कूल के लड़कियों के लिए सुरक्षित हो जाने से बॉयज हाईस्कूल में भर्ती किया गया था। बॉयज हाईस्कूल की दीवारों पर अमिताभ ने पेंसिल से लकीरें खींच दी थीं और प्रिंसीपाल रिचॅर्ड डूट ने उनकी हथेलियों पर बेंतें रसीद की थीं। घबराया बच्चा जब घर गया, तो हरिवंशराय उसे ताबड़तोड़ साइकल पर बैठाकर स्कूल ले गए और सीधे प्रिंसीपाल के कक्ष में पहुँचकर उन्हें खरी-खोटी सुनाई। बाद में बच्चे से कहा था कि गलती तुम्हारी थी। तुम्हें ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए, जिससे दूसरे तुम्हें दंड दें और मुझे उनसे लड़ने को जाना पड़े। कवि बच्चन ने तब प्रिंसीपाल से कहा था, 'इस सजा से बच्चे के मन पर जो दाग पड़ गया है, वह कभी नहीं मिटेगा।' 
 
क्लाइव रोड के इसी मकान में तेजी बच्चन ने सुंदर-सा बाग लगाया था और अमिताभ को अपने इस बाग पर गर्व था। उस समय इलाहाबाद के अल्बर्ट पार्क में हर वर्ष फ्लॉवर शो होता था, जहाँ तेजी भी अपने गमले प्रदर्शित करती थीं। वे अक्सर पुरस्कृत होती थीं। अमिताभ भी अपनी स्कूल मेंस्पोर्ट्स में फर्स्ट आते थे। पिताजी कहते थे- प्रेम से, मन लगाकर किए गए काम में सफलता और प्रशंसा अवश्य मिलती है। इसी मकान में अमिताभ ने अपने जीवन के पहले सुपरमैन को देखा। उनका नाम था सुशील बोस। अमिताभ उनके बारे में अपने दोस्तों से बात करते हुए कहते थे, 'अच्छे से अच्छा पहलवान भी इस लंबे-चौड़े आदमी को देखकर घबरा जाए। पास में खड़े हो जाओ तो लगेगा बाजू में पहाड़ है। बोस अंकल के सामने तो मैं भी लिलिपुट (एक बौना पात्र) हूँ।' 
 
इस बीच बंटी बड़ा हो गया और भैया के साथ स्कूल जाने लगा था। उसे साथ में स्कूल ले जाने के लिए बच्चनजी ने अमिताभ को एक साइकल खरीद दी थी। साइकल के डंडे पर बैठकर अजिताभ रोता था, खास करके ठंड के दिनों में। तब अमित पिता के साथ कवि सम्मेलनों में जाने की जिद भी किया करता था। वह उनकी कविता की पुस्तकें पढ़ता था और कभी-कभी गला खोलकर कविता पाठ भी करने लगा था। बच्चनजी ने महसूस किया था कि लड़के का गला सुरीला है। अमिताभ जब साढ़े नौ वर्ष के थे, तब कवि बच्चन अँगरेज कवि डब्ल्यू.बी. यीट्स पर डॉक्टरेट करने के लिए इंग्लैंड चले गए, यह कहकर कि अब घर की जिम्मेदारी तुम पर है। 
 
हरिवंशराय 12 अप्रैल 1952 को बंबई से लंदन के लिए उड़े थे। अमिताभ ने उनसे कहा था कि लंदन से मेरे लिए एक बंदूक लाना। बंदूक का नाम सुनकर कवि बच्चन दचका खा गए थे। उन्होंने पूछा, 'बंदूक क्यों?' अमिताभ ने कहा था, 'पक्षी मारने के लिए डैड। मेरी दोस्त शशि के पास एक बंदूक है। वह कभी-कभी मुझे भी चलाने को देती है।' तब बच्चनजी ने मुस्कुराते हुए कहा था, 'उसे बंदूक नहीं मुन्ना, एयरगन कहते हैं। उसमें कारतूस की जगह छर्रे लगते हैं, जिसका आघात पक्षी सह नहीं पाते।' भूल सुधार के बाद अमित ने फिर पूछा था, 'लाओगेना।' बच्चनजी ने कहा था, 'मगर तू पक्षी क्यों मारेगा, उन्होंने तेरा क्या बिगाड़ा है?' अमित ने कहा, 'नहीं मारूँगा, मैं उन्हें पालूँगा।' बच्चनजी ने कहा, 'तू उन्हें पालेगा भी क्यों, वे तो आकाश के राजा हैं। उनको पिंजरे में बंद करना भी अच्छी बात नहीं। पिंजरे में बंद पक्षियोंकी आँखों में जरा झाँककर तो देखो, वे रोते हुए से दिखते हैं।' अमिताभ इस युक्तिवाद से जरा विचलित हो गए थे। 
 
लंदन से घर लौटे पिता ने अमित को एयरगन और अजिताभ को चाबी से चलने वाली पाँच डिब्बों की रेलगाड़ी दी। अजिताभ को पत्रों को संभालकर रखने के लिए यह आकस्मिक पुरस्कार दिया गया। इसके बाद माँ ने पिता के समक्ष आर्थिक परेशानियों का दुःखड़ा रोया। दूसरे दिन पिता अपनी जेब में बची सिल्लक लेकर बाजार गए और संताप से ग्रस्त लौटे। वे अपनी गरीबी को कोस रहे थे। उस दिन अमिताभ अपनी एयरगन लेकर घर के बरामदे में बैठे सोच रहे थे, 'पहली गोली किसे मारूँ।'

विदेश प्रवास से बच्चन परिवार के दिन तो बदलने ही थे। एक दिन जवाहरलाल नेहरू ने कवि बच्चन को अपने घर चाय पर आमंत्रित किया और उनके समक्ष विदेश मंत्रालय में अधिकारी बनने का प्रस्ताव रखा। वे उनसे हिन्दी का प्रचार-प्रसार बढ़ाने का काम करवाना चाहते थे। नेहरूजी जानते थे कि बच्चनजी विद्यापीठ के पाँच सौ रुपए के वेतन से दुःखी हैं। इसलिए उन्होंने यह आश्वासन भी दिया कि पगार अच्छी मिलेगी। नेहरूजी के स्वर में अनुरोध भी था। अगले महीने केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री डॉ. केसकर इलाहाबाद आए। वे आकाशवाणी के लिए प्रोड्यूसर ढूँढने में लगे थे। उन्होंने डॉ. बच्चन से भी बातचीत की और सितंबर 1954 में आकाशवाणी की साढ़े सात सौ रुपए की नौकरी का नियुक्ति पत्र उन्हें मिला। नौकरी सिर्फ एक वर्ष के लिए थी, लेकिन बच्चनजी ने विद्यापीठ के उपेक्षा भरे वातावरण से छुटकारा पाने के इस अवसर का उपयोग किया। इसके अलावा उन्हें यह विश्वास भी था कि एक वर्ष के अंदर नेहरूजी उन्हें अपने पास बुला लेंगे। डॉ. बच्चन जब दिल्ली जाकर नेहरूजी से मिले तो उन्होंने समझाया कि आकाशवाणी की साढ़े सात सौ रुपए की नौकरी करने से उन्हें विदेश मंत्रालय के अधिकारी के रूप में हजार रुपए की नौकरी देना आसान होगा। 
 
इन दिनों अमिताभ में एक अजीब-सी भावुकता आ गई- इलाहाबाद छूट जाएगा। माँ के साथ बाजार-हाट जाना। पिता के साथ गंगा तीरे। रानी का बाग। सब-कुछ। नई जगह पर होस्टल और स्कूल में छोटे भाई की देखरेख। उन्होंने ना-नुकुर की तो माँ ने कहा, 'दुनिया बहुत बड़ी है। इतनी बड़ी दुनिया में कई आश्चर्य यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े हैं। दुनिया को समझने का द्वार अध्ययन ही है। अच्छे स्कूल में पढ़ने का मौका हर किसी को नहीं मिलता। शेरवुड में जाकर पढ़ने से तुम्हारा फायदा होगा।' अमिताभ को लगा कि माँ भी अब पिताजी जैसा बोलने लगी हैं। 
 
अगले कुछ महीनों में तेज गति से बहुत कुछ बदल गया। इलाहाबाद से अमिताभ का संबंध टूट गया। वे छोटे भाई के कंधे पर हाथ रखकर नैनीताल के शेरवुड स्कूल जा पहुँचे। आकाशवाणी के प्रोड्यूसर के रूप में डॉ. बच्चन ने इलाहाबाद में काम शुरू कर दिया। 1955 के दिसंबर में वे इलाहाबाद से इंदौर आए थे। होलकर कॉलेज के हिन्दी विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन ने उन्हें कवि सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए बुलाया था। तब इंदौर में तेजी बच्चन का ट्रंककॉल आया था और उन्होंने बताया था कि 'विदेश मंत्रालय का नियुक्ति पत्र आ गया है। विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी के रूप में नियुक्ति मिली है। पगार एक हजार रुपए महीना होगी।' तेजी बच्चन की ज्योतिष में गहरी आस्था थी। उन्होंने नौकरी जॉइन करने का शुभ दिन भी निकलवा लिया था। डॉ. बच्चन को इंदौर से सीधे दिल्ली जाना पड़ा था और 27 दिसंबर को विदेश मंत्रालय में काम संभालने के लिए वे पहुँचे थे। यह उनका अड़तालीसवाँ जन्म दिवस था। अगले साल पूरे बच्चन परिवार ने भारी मन से इलाहाबाद छोड़ दिया। उन्हें दिल्ली के मोतीबाग में फ्लैट मिला था। दिल्ली पहुँचे तो मालूम पड़ा कि साउथ ब्लॉक के निकट साउथ एवेन्यू में भी एक फ्लैट अलॉट हो गया है।
 
सबकी राय हुई कि साउथ एवेन्यू ज्यादा अच्छी और सुविधाजनक जगह रहेगी। यहाँ अपना पड़ाव डालकर डॉ. बच्चन ने नेहरूजी को सूचित किया और मिलने की अनुमति माँगी। चार दिन बाद नेहरूजी ने बच्चन परिवार को चाय के लिए आमंत्रित किया। उनके सरकारी आवास तीन मूर्ति भवन की भव्यता को अमित ने अपने फ्लैट से ही देख लिया था। आनंद भवन से ज्यादा विशाल भव्य राजबाड़े जैसी जगह। यहाँ राजीव से अमित की फिर भेंट हुई। अमित को मालूम था कि राजीव और संजय कुछ ही दिनों बाद दून स्कूल में पढ़ने चले जाएँगे और वे दोनों भाई (अमिताभ-अजिताभ) शेरवुड में पढ़ने के लिए नैनीताल चले जाएँगे। अमित और राजीव तथा अजिताभ और संजय के बीच प्रगाढ़ दोस्ती के बीज इसी दिन अंकुरित हुए। शाम को घर लौटने के बाद पिताजी ने कहा था, 'डिसेंसी यानी कि शालीनता किसे कहते हैं, यह बात समझ में आई या नहीं? वह देश का टॉप बॉस है और मैं उसके अधीन काम करने वाला एक कर्मचारी। उनके लिए हम कुछ भी नहीं हैं, लेकिन कितना मान दिया उन्होंने हमको। यही सच्ची शिक्षा है। बड़े होने और अच्छे होने के बीच कोई विरोध नहीं है।' 
 
नैनीताल जाने से पहले मुन्ना और बंटी मम्मी के साथ दिल्ली के बाजारों में भटके और खूब खरीदी की। यहाँ चाट, वहाँ आइसक्रीम। लेकिन एक नई जिंदगी शुरू। पहले वे रेल द्वारा दिल्ली से काठगोदाम गए। वहाँ से नैनीताल तक 30 किलोमीटर का सफर बस से किया और पहाड़ी पर स्थित शेरवुड कॉलेज की इमारत को देखा। यह संस्था नाम से तो कॉलेज कही जाती थी, लेकिन वास्तव में थी स्कूल ही। जिस पहाड़ी पर यह थी, उसका नाम टिफिन टॉप था। नजदीक ही चायना पीक, स्नोव्यू, कुमाऊँ रेंज। अमिताभ को मालूम था कि रॉबिनहुड का अड्डा शेरवुड के जंगलों में ही था। अमिताभ को रॉबिनहुड नाम के छात्रावास (ग्रीन हाउस) में ही रहने को जगह मिली। इस संयोग की वजह से अमिताभ का बाल मन खुशी से झूम उठा और धीमे-धीमे वे नई जगह से प्रेम करने लगे। यहाँ होस्टल में अपना काम आप ही करना पड़ता था। यानी दोनों भाइयों को स्वावलंबी बनना पड़ा। सुबह 7 से रात 10 बजे तक का पूरा रूटिन निर्धारित था। अर्थात अनुशासनबद्ध जीवन। लेकिन यहीं अमिताभ को पहली बार स्वतंत्रता का अहसास हुआ। अमिताभ को यह भी मालूम था कि इस जगह का नाम सरोवर किनारे बने नैनीदेवी के मंदिर के कारण नैनीताल है और इस स्थान पर प्रकृति की अपार कृपा है। चारों तरफ अनेक झाड़ियाँ और रंग-बिरंगे फूल। प्रकृति की सुंदरता को आँखों में समेटने और उसे नजदीक से जानने के लिए स्कूल कॉम्प्लेक्स के आसपास विचरण करने में उन्हें विशेष आनंद आने लगा और यहीं उनके अंदर बैठे नट (अभिनेता) को भी प्रकट होना था। अमिताभ सावधानीपूर्वक पढ़ाई-लिखाई तो करते ही थे, मगर उनकी ज्यादा रुचि नाटकों में भाग लेने में रहा करती थी। 
 
राजीव से अमित की पहली मुलाकात चौथे जन्मदिन की पार्टी में हुई, जब अमित ने पहली बार मिलिट्री ड्रेस पहनी थी और इस दिन अमित के घर फैंसी ड्रेस स्पर्धा रखी गई थी, इसलिए इंदिराजी राजीव को धोबी के वेश में लाई थीं। तब राजीव की उम्र मात्र ढाई साल थी। अमित को जब इलाहाबाद की सेंट मैरीज स्कूल में भर्ती किया गया, तब वहाँ उनका नाम लिखा गया- अमिताभ बच्चन।

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