क्या वीडियो गेम से बढ़ती है हिंसा

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जर्मनी में इस बात पर बहस चल रही है कि क्या वीडियो गेम खेलने के कारण लोग हिंसक हो जाते हैं। कुछ वैज्ञानिक इसे सही करार देते हैं, लेकिन कुछ इसे एक गलत धारणा मानते हैं। 2009 में जब जर्मनी में एक लड़के ने 16 लोगों की गोली मार कर हत्या कर दी और सबको मारने के बाद खुद को भी गोली मार ली। मीडिया में चली रिपोर्टों के अनुसार यह लड़का शूटिंग वाली वीडियो गेम्स का शौकीन था और कई घंटों तक टीवी स्क्रीन के आगे लोगों पर गोलियाँ चलाने के कारण उसने असल जिंदगी में भी ऐसा किया।

समझना मुश्किल
जर्मनी की बॉन यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान के प्रोफेसर क्रिस्टियान मोनटाग का कहना है कि आमतौर पर लोगों की प्रतिक्रिया ऐसी ही होती है और यह पूरी तरह गलत नहीं है। डॉयचे वेले से बातचीत में प्रोफेसर मोनटाग ने कहा, 'जब स्कूल में गोलीबारी होती है तब पूरा मीडिया बस यही कहने लगता है कि यह गेम्स का असर है। मैं कई गेमर्स से मिला हूँ और उनके जरिए मुझे यह पता चला है कि गेमिंग का एक सामाजिक पहलू भी होता है और मैं यह कह सकता हूँ कि इसे समझना उतना आसान नहीं है, जितना मीडिया को लगता है।

जब प्रोफेसर मोनटाग ने देखा कि मीडिया फौरन लोगों की वीडियो गेम खेलने की आदत को उनके चरित्र से जोड़ने लगता है तो उन्होंने इसे समझने के लिए कुछ प्ररीक्षण किए। उनकी टीम ने गेम खेलने वालों का दिमाग स्केन किया और उनके एमआरआई को गेम ना खेलने वाले लोगों के एमआरआई से मिला कर देखा। एमआरआई करते समय इन लोगों को अलग-अलग तरह की तस्वीरें दिखाई गईं। इसमें समुद्र किनारे की सुंदर तस्वीरें भी थीं और घायल और मरे हुए लोगों की भी। साथ ही मशहूर वीडियो गेम काउंटर स्ट्राइक के स्क्रीन शॉट भी लोगों को दिखाए गए।

निष्ठुर बनाते हैं गेम्स
प्रोफेसर मोनटाग ने पाया कि जो लोग एक हफ्ते में 15 घंटे काउंटर स्ट्राइक या उस जैसे अन्य गेम्स खेलते हैं, उनके दिमाग के अगले हिस्से में बायीं तरफ बहुत कम हरकत देखी गई। दिमाग का यह हिस्सा भावनाओं पर नियंत्रण रखता है। प्रोफेसर मोनटाग का कहना है कि इससे यह पता चलता है कि जो लोग हिंसा से भरपूर वीडियो गेम्स नहीं खेलते उनके लिए हिंसक तस्वीरों को देखना बहुत मुश्किल होता है, लेकिन ऐसे गेम्स खेलने वाले लोग निष्ठुर हो जाते हैं, उन्हें हिंसक चित्र देख कर कोई खास फर्क नहीं पड़ता।

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