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आज के दौर में संस्कृत

- गायत्री शर्मा

Webdunia
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अनेक भारतीय भाषाओं की जननी कही जाने वाली संस्कृत कई भारतीय धर्मग्रंथों की भाषा भी है। जिस भाषा ने भारत में अपना बचपन बिताया वह अब अपना यौवन विदेशों में बिता रही है। भारतीयों की बेरूखी की शिकार देववाणी संस्कृत को विदेशों में भरपूर दुलार व सम्मान मिल रहा है।

हमारी संस्कृति में गहरी रुचि लेने वाले विदेशियों में संस्कृत के प्रति बढ़ते आकर्षण को देखते हुए धीरे-धीरे वहाँ के स्कूली पाठ्‌यक्रम में भी इस भाषा को शामिल किया जा रहा है। भारतीय संस्कृति की पहचान कही जाने वाली संस्कृत भाषा की भारत में दयनीय स्थिति के कारणों पर युवाओं से चर्चा करने के लिए हमने रुख किया डीएवीवी परिसर की ओर। वहाँ हमारी मुलाकात हुई स्कूल ऑफ लॉ के युवाओं के एक समूह से, जो दोपहर के वक्त सर्दी की गुनगुनी धूप का लुत्फ उठाते हुए एक- दूसरे से बातें कर रहे थे।

हमारी चर्चा का आरंभ हुआ आज के दौर में संस्कृत के औचित्य को लेकर।
यदि आज समय रहते हम नहीं जागे तो कल को हमारी आने वाली पीढियाँ हमसे यही पूछेंगी कि आखिर यह संस्कृत क्या है और इसे किसने बनाया था?
जिस पर अपना तर्क प्रस्तुत करते हुए लॉ स्टूडेंट राजेंद्र बर्मन ने कहा कि संस्कृत कालिदास, बाणभट्ट, पाणिनी और वाल्मीकि जैसे महान रचनाकारों व कवियों की भाषा है, जिन्होंने अपने साहित्य इसी भाषा में गढ़े। यदि हम भारत की प्राचीन संस्कृति के बारे में गहनता से जानना चाहते हैं तो हमें इसी भाषा को जानना और सीखना होगा। हेमंतसिंह रावत के अनुसार भारत में संस्कृत का माहौल बनाना व जागरूकता फैलाना केवल एक ही दिन या कुछ महीनों में संभव नहीं है। इसके लिए तो हमें निरंतर कुछ न कुछ प्रयास करने ही होंगे।

हेमंत की बात से सहमति जताते हुए नीलम जाट ने भी इसी बात को दोहराया और कहा कि यदि आज समय रहते हम नहीं जागे तो कल को हमारी आने वाली पीढ़ियाँ हमसे यही पूछेंगी कि आखिर यह संस्कृत क्या है और इसे किसने बनाया था?

जब तक स्कूलों में अनिवार्य तथा कॉलेज में वैकल्पिक रूप में संस्कृत को मान्यता नहीं मिलेगी तब तक युवाओं में संस्कृत सीखने की ललक पैदा नहीं होगी। ऐसा कहने वाले ओमप्रकाश डांगी के अनुसार आज हमारी उपेक्षा के कारण ही शिक्षण संस्थानों में संस्कृत केवल खानापूर्ति की भाषा बनकर रह गई है, जिसे पढ़ाने वाले शिक्षक भी गिनती के हैं। इस चर्चा को गति प्रदान करते हुए ब्रजबिहारी बघेल और मेघा पंडित ने संस्कृत की भारत में दयनीय स्थिति के जिम्मेदार राजनेताओं को बताया, जिनकी मनमानी की वजह से अब तक स्कूलों व कॉलेजों में संस्कृत की अनिवार्यता संबंधी कोई विधेयक पारित नहीं हो पाया है। बबली मंडलोई तो संस्कृत को केवल कर्मकांड की भाषा कहने की भूल करने वाले नासमझ लोगों को पढ़े-लिखे शिक्षितों की संज्ञा देती है, जो जान-बूझकर संस्कृत को नकार रहे हैं।

इस पूरी चर्चा के निष्कर्ष रूप में कहा जाए तो भारत में आज संस्कृत की स्थिति अपने ही घर में पराई बेटी-सी है, जिसे विदेशी तो सर आँखों पर बिठा रहे हैं, पर हम हैं कि उसे घोर उपेक्षा की शिकार बना रहे हैं। भारत में संस्कृत को बढ़ावा देने के लिए हमें अपने स्तर पर इस भाषा को अपनाना होगा। जब तक हम स्वयं संस्कृत को नहीं अपनाएँगे। तब तक इस संबंध में विधेयक या कानून के रूप में किसी चमत्कार की उम्मीद करना हमारी सबसे बड़ी मूर्खता होगी।

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