आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज का दीक्षा दिवस

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दीक्षा लेकर साधु हो जाना या मुनि हो जाना बहुत आसान है किंतु समस्त शास्त्रों के ज्ञान के बाद व्यक्ति उपाध्याय हो जाता है और कठोर तप करते हुए वह आचार्य पद ग्रहण करता है। ऐसे ही आचार्य हैं आचार्यश्री विद्यासागर महाराज। आचार्य जी ने अनुशासन और तप से अपने मन और तन को कुंदन बना रखा है। इसी का तेज उनके चेहरे पर निरंतर झलकता रहता है।

ऐसे आचार्य विद्यासागरजी ने धर्म की प्रभावना समाज में फैला रखी है। उनकी यही प्रभावना देश को अहिंसा के पथ पर ले जाती है। उनकी यह दीक्षा हमेशा समाजवासियों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनी रहेगी।
 
आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज का जन्म कर्नाटक के बेलगाम (ग्राम सदलगा) के पास चिक्कोड़ी ग्राम में अश्विन शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) के दिन दिगंबर जैन परिवार में हुआ था। उनकी पिता का नाम मल्लपा जी अष्टगे तथा माता श्रीमती जी जो दोनों ही बाद में मुनि और आर्यिका हो गए थे। आचार्यश्री के चार भाई और दो बहन है।
 
आचार्य विद्यासागरजी ने सन् 1967 में आचार्य देशभूषण जी से ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया। महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज से आषाढ़ शुक्ल पंचमी (30 जून, 1968, रविवार) को अजमेर में उन्होंने दिगंबर पद्धति से मुनि दीक्षा ग्रहण की।
 
दिगंबर जैन संतों में सबसे ऊंचा स्थान आचार्यों का है। आचार्यश्री ने नसिराबाद में आचार्य ज्ञानसागर द्वारा 22 नवंबर 1972 को आचार्य का पद ग्रहण किया।
 
ज्ञात हो कि जैन धर्म में आचार्य का दर्जा साधुओं और उपाध्यायों से ऊपर है। जो पांच नमस्कार कहें गए हैं। उनमें एक नमस्कार आचार्यों को नमन किया गया है। दोनों तरफ से गिनती करने पर तीसरे नंबर पर आचार्यों की उपस्थिति है।
 
आचार्यश्री ने लेखन कार्य मुख्यत: कन्नड़, हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, प्राकृत और बांग्ला भाषा में ‍किए। कई शोधकार्य तथा अनेक लेख लिखे हैं। उनका सर्वाधिक चर्चित महाकाव्य 'मूकमाटी' है।
 
जैन तीर्थक्षेत्र बीना बारहा में आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज का मुनि दीक्षा समारोह मनाया जाएगा। उनके दीक्षा दिवस पर उन्हें शत् शत् नमन। 
 
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