कर्मयोगी भगवान श्रीकृष्ण

- पं. अशोक पवांर मंयक

Webdunia
ND
कृष्ण भगवान ही नहीं महायोगी भी थे। महाभारत काल में अनीति चरम पर पहुंच चुकी थी तब भगवान कृष्ण ने अपने प्रिय सखा अर्जुन का साथ देकर कुरुक्षेत्र में रणबिगुल बजाया था।

गीता के अध्याय 4 में खुद भगवान श्री कृष्ण ने कहा है :

' यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानम धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌॥'

हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात्‌ साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं। सज्जन पुरुषों के रक्षार्थ पाप कर्म करने वालों का खात्मा करने के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं युग-युग में यानी हर समय प्रकट होता हूं।

कृष्ण ने तृतीय अध्याय में कर्मयोग को स्पष्ट किया है - हे अर्जुन जो व्यक्ति आसक्तिरहित होकर काम-भावना को वश में रख कर्म करता है वही सच्चा कर्म योगी है।

गीता में भगवान कृष्ण ने ज्ञान के मार्ग का रास्ता खोला है। जिसे आज का मानव मनन कर अपने उद्वार का मार्ग प्रशस्त कर सकता है लेकिन आज मानव वासना व भ्रष्टाचार आदि में लिप्त होता जा रहा है। राजा भी प्रजा पर ध्यान न देकर भ्रष्टाचारियों के प्रति आंख मूंद कर बैठा है।

भगवान कृष्ण ने चतुर्थ अध्याय के 22वें श्लोक में बहुत ही उपयोगी मंत्र बताया है-

यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥

- अर्थात् जो बिना इच्छा के अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्ट रहता है, जो सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से सर्वथा परे हो गया है जो कर्म करते हुए भी उससे बंधता नहीं है- ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहनेवाला ही सच्चा कर्मयोगी कहलाता है।

भगवान ने पांचवें अध्याय में बहुत ही गुढ़ मंत्र कहा है जिसका तात्पर्य है :

जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी चीज की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी ही सदा संन्यासी समझने योग्य है, क्योकि राग-दोषादि द्वन्द्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक सांसारिक बंधन से मुक्त हो जाता है।

योगेश्वर ने आगे कहा है कि बाहर के विषय-भोगों को चिंतन न करता हुआ बाहर ही निकालकर और दृष्टि को भृकुटी के मध्य स्थित करके नासिका में विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके रखता है। जिसकी इन्द्रियां, मन और बुद्धि जीती हुई है। जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है। वह सदा भयमुक्त है।

भगवान कृष्ण ने उस दिव्य योग के दर्शन पहले ही संसार को करा दिए जिसे आज हम योगा के नाम से श्वास क्रिया के अनुलोम-विलोम को कहते है। उसी ध्यान योग को बरसों पहले भगवान ने बताकर मन को आकांक्षाओं और मोह-माया आदि से बचने का मार्ग दिखाया है।

ND
यूं तो उनके मुखारबिंदों से निकले श्लोकों से रची गीता में जीवन का संपूर्ण सार है।

ज्योतिष की दृष्टि से देखें तो भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के समय छ: ग्रह उच्च के थे, वहीं सूर्य स्वराशि का व राहु-केतु भी मित्र राशि के थे। यही वजह है कि देव सोलह कलाओं के ज्ञाता रहे। उनका पराक्रमेश जहां उच्च का है, वहीं लग्न का स्वामी भी उच्च का है। इस परमोच्च स्थिति के बनने से वे महाप्रतापी होने के साथ-साथ अखण्ड साम्राज्य के राजा भी थे। चतुर्थ भाव में सूर्य के होने से उन्होंने सदैव जनसमुदाय का नेतृत्व किया।

दशम भाव पर सूर्य की शत्रु दृष्टि पड़ने से पिता से दूर ही रहे। भाग्य में मंगल उच्च का होने से सौभाग्यशाली माने गए। वहीं गुरु तृतीय भाव में उच्च का होने से उनमें तत्व ज्ञान भी भरपूर था।

अंत में हम सभी जन्माष्टमी पर भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करें कि- हे देव! पिता जैसे पुत्र के, सखा जैसे सखा के, और पति जैसे प्रिय पत्नी के अपराध सहन करते हैं- वैसे ही आप भी मेरे समस्त अपराध को सहन क रके मुझे सर्वथा योग्य बनाएं। जय श्रीकृष्ण!

Show comments

ज़रूर पढ़ें

महाशिवरात्रि पर रात्रि के 4 प्रहर की पूजा का सही समय और पूजन विधि

ब्रज की होली के 5 सबसे लोकप्रिय गीत

कौन है देश का सबसे अमीर अखाड़ा, जानिए कहां से आती है अखाड़ों के पास अकूत संपत्ति

विजया एकादशी कब है, जानिए पूजा का शुभ मुहूर्त और व्रत का फल

Mahashivratri 2025: महाशिवरात्रि विशेष आरती, चालीसा, स्तुति, स्तोत्र, रुद्राष्टक यहां पढ़ें...

सभी देखें

नवीनतम

Tarot Card Predictions 2025: टैरो कार्ड राशिफल 2025, जानिए कैसा रहेगा कुम्भ राशि का भविष्‍य

सीताष्टमी पर पूजन का क्या है शुभ मुहूर्त और व्रत करने के लाभ

Aaj Ka Rashifal: क्या लाया है आज का दिन आपके लिए, पढ़ें 19 फरवरी 2025 का ताजा भविष्यफल

मंगल ग्रह बदलेंगे चाल, क्या होगा देश दुनिया का हाल? किन 5 राशि वालों की चमकेगी किस्मत