जात्यादि तेल

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त्वचा पर फोड़े-फुंसी, चर्म विकार, मकड़ी या जहरीले कीड़े की रगड़ से होने वाले फोड़े या घाव, सूखी-गीली खुजली, कील-मुंहासे आदि रोगों में जात्यादि तेल बहुत लाभकारी है।

किसी कारण से चमड़ी छिल जाने या कट जाने पर होने वाले घाव आदि चर्म रोगों को ठीक करने और सभी प्रकार के दुष्ट व्रणों (ठीक न होने वाले घावों) के लिए जात्यादि तेल एक उत्तम और शीघ्र गुणकारी योग है।

घटक द्रव्य : चमेली के पत्ते, नीम के पत्ते, पटोल पत्र, करंज के पत्ते, मोम, मुलहठी, कूठ, हल्दी, दारुहल्दी, कुटकी, मजीठ, पद्माख, लोध, हर्रे, नीलकमल, नीला थोथा, सारिवा, करंज के बीज।

निर्माण विधि : सबको सम मात्रा में लेकर पानी में पीसकर कल्क (लुग्दी) बना लें। इस लुग्दी से चौगुनी मात्रा में काले तिल या खाने का तेल और तेल से चौगुनी मात्रा में पानी मिलाकर मन्दी आग पर पकाएं। जब मात्र तेल बचे तब उतारकर कपड़े से छान लें और ठण्डा करके शीशी में भर लें।

मात्रा और प्रयोग विधि : इस तेल को घाव पर या रोगग्रस्त अंग पर दिन में 3 से 4 बार लगाना चाहिए। इसे स्नान करने के बाद लगाना चाहिए।

रूई तेल में भिगोकर थोड़ा निचोड़ दें, ताकि तेल बहने न लगे और घाव पर रखकर पट्टी बांध सकते हैं ताकि तेल कपड़ों पर न लग सके। खुले अंग पर लगाना हो तो पट्टी बाठधने की जरूरत नहीं।

लाभ : ऊपर अंकित व्याधियों को दूर करने के लिए बाह्य उपचार के रूप में जात्यादि तेल का प्रयोग करना एक श्रेष्ठ और लाभकारी उपाय है।

जहां अन्य दवाइयां और चिकित्सा विधियां लाभ न कर पा रही हों, वहां जात्यादि तेल का प्रयोग करना गुणकारी सिद्ध होता है। आयुर्वेदिक दवाओं की दुकान पर यह दवा बनी बनाई मिलती है।

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