Dharma Sangrah

गालियाँ जंगल में रहें तो बेहतर

दीपक असीम
अगर सेंसर बोर्ड यह कबूल करता है कि सिगरेट पीना किसी पात्र की आदत है और उसे पर्दे पर दिखाया जाना चाहिए, तो वह तर्क के जाल में फँस जाता है। फिर गालियाँ देना भी तो एक आदत है। फिल्मी चरित्रों से दर्शकों के चरित्र में भी बदलाव होता है।

कलाकारों की अदाएँ लोगों को लुभाती ही हैं और वे भी उसी तरह (अदा के साथ) सिगरेट जलाना चाहते हैं, जिस तरह रजनीकांत ने फिल्म फलाँ में और देवानंद ने पुरानी फिल्म ढिकाँ में जलाई थी। गालियों का भी वैसा ही है। कितनी ही लड़कियों ने गालियाँ देने की अपनी आदत को फिल्म इश्किया के बाद सही ठहराया होगा।

गोलमाल नंबर तीन के बाद कितनी ही लड़कियों ने गालियाँ देना कोशिश करके सीखा होगा। प्रोफेशनल्स ने "नो वन किल्ड जेसिका" से प्रेरणा ली होगी और देल्ही-बेली तो युवाओं के लिए स्टाइल की किताब बन गई होगी।

साहित्य में ये बहस बरसों से चल रही है कि गालियों को साहित्य में स्थान दिया जाना चाहिए या नहीं। हिन्दी के कई ऐसे उपन्यास हैं, जिनमें गालियाँ उसी रूप में मौजूद हैं, जैसे झगड़े फसाद की एफआईआर लिखते समय पुलिस रोज़नामचे में लिखी होती हैं। मगर साहित्य कुलिया में गुड़ फोड़ने वाली बात हुई। फिल्म अवाम का मनोरंजन है। इसकी साफ-सफाई का अधिक ध्यान रखा जाना चाहिए क्योंकि लोग फिल्मों से जीवन के संस्कार भी ग्रहण करते हैं।

साहित्य परिपक्व लोग पढ़ते हैं। किताब में लिखी गाली को वे किसी पात्र की शैली और आदत मान सकते हैं, पर उसकी नकल करने की आशंका बहुत कम है। वैसे गाली वाली तमाम फिल्मों को देखा जाए तो केवल एक फिल्म है, जिसमें गालियाँ पात्रों की आदत लगती है। वो एकमात्र फिल्म है बैंडिट क्वीन। डाकू, सो भी जंगल में रहने वाले डाकू गालियाँ नहीं बकेंगे तो कौन बकेगा?"नो वन किल्ड जेसिका" में रानी मुखर्जी और "इश्किया" में विद्या बालन की गाली को आधा-अधूरा ही ठीक माना जा सकता है।

रा.वन में तो कहानी से इस बात का कोई संबंध ही नहीं कि नायिका गालियों पर शोध कर रही है। इस फिल्म में गाली एकदम ही फिजूल है और फायदा उठाने के लिए चिपकाई गई है। एक अतिरिक्त आकर्षण पैदा करने के लिए। हैरत की बात है कि जब मर्द औरतों वाली गाली बकने लगें तो उनका मज़ाक बनाया जाता है, उनकी मर्दांनगी को शक की नज़र से देखा जाता है, मगर जब औरत मर्दों वाली गाली बके तो कुछ लोगों को उसमें ज्यादा आकर्षण नज़र आता है। शायद इसलिए कि दुनिया मर्दों की है। गोलमाल तीन भी ऐसी ही एक फिल्म थी जिसमें करीना कपूर ने फिजूल अपनी ज़ुबान खराब की थी।

पिछले दो बरसों में गालियों ने फिल्मी पर्दे पर अपनी खास जगह बना ली है। ऐसा कतई नहीं होना चाहिए। देल्ही-बेली तो पूरी तरह गाली आधारित फिल्म है। इसे शरारतपूर्वक सेंसर से पास कराया गया। पहले अंग्रेजी में फिल्म पास करा ली गई और बाद में कहा गया कि जो गालियाँ इस्तेमाल की जा रही हैं, वो मात्र अनुवाद है।

सेंसर को अधिक होशियार होना चाहिए। सेंसर एक ऐसा बेईमान नाका है, जहाँ से बड़े-बड़े हाथी गुज़र जाते हैं और किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। मगर साधनहीन आदमी की सुई भी इस नाके से नहीं गुज़र सकती। शक गुज़रता है कि सेंसर वाले भी भ्रष्ट हैं और ले-देकर समाज के माथे पर कुछ भी थोप सकते हैं। दुआ की जानी चाहिए कि नए साल में सेंसर गालियों के प्रति अधिक सख्त रवैया अपनाएगा। वरना हमारे बच्चे घरों के ड्राइंगरूम में वो भाषा बोलेंगे जो कलाली के पीछे वाली गली में बोली जाती है।

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