जनवरी 2009 में विशेष पहचान प्राधिकरण की स्थापना हुई और जुलाई 2009 में श्री नंदन निलेकणी को इसका प्रमुख बना दिया गया। इसके दो मकसद थे-एक यह कि लोगों के पास एक स्थाई पहचान पत्र नहीं है, वह दिया जाएगा और दूसरा इसे योजनाओं से जोड़ा जाएगा, ताकि यदि एक व्यक्ति एक बार से ज्यादा किसी योजना का लाभ ले रहा है या नकली हितग्राही बनाए गए हैं, तो उन्हें पहचाना जा सके। यह पहचान पत्र या क्रमांक देने के लिए हर व्यक्ति को अपनी आंखों की पुतलियों और सभी उंगलियों के निशान देने होंगे।
इस प्राधिकरण ने यह हमेशा कहा कि आधार पंजीयन अनिवार्य नहीं है पर अन्य विभाग अपनी योजनाओं का लाभ देने के लिए इसे एक शर्त के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। हुआ भी यही। राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी क़ानून के तहत खाते खोलने के लिए इसे अनिवार्य कर दिया गया। पेट्रोलियम मंत्रालय गैस सेवा के तहत आधार क्रमांक की मांग करना शुरू कर चुका है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना में भी इसका प्रावधान है। सस्ता राशन लेने के लिए भी इसे अनिवार्य बनाया जा रहा है।
हमारे प्रधानमंत्री ने वर्ष 2010 में नेशनल आइडेंटीफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया विधेयक राज्यसभा में पेश किया, इसमें यह भी नहीं बताया गया था कि वे किस हैसियत से यह विधेयक पेश कर रहे हैं। इस विधेयक को वित्त विभाग की संसद की स्थाई समिति ने खारिज ही कर दिया पर प्राधिकरण को कोई फर्क नहीं पड़ा। वर्ष 2009-10 में इसके लिए 120 करोड़ रूपए के बजट का प्रावधान था, जो 20010-11 में बढ़ कर 1900 करोड़ कर दिया गया।
दिसंबर 2012 तक प्राधिकरण 2300.56 करोड़ रूपए खर्च कर चुका था। जानीमानी क़ानून विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर उषा रामनाथन कहती हैं कि बिना विभाग वाले और बिना किसी कानूनी प्रावधान के चल रहे इस प्राधिकारण और काम पर 45 हज़ार से डेढ़ लाख करोड़ रूपए तक खर्च होने का अनुमान है।
हम सब जानते हैं कि बैंक में खाता खोलते समय हम अपना फोटो भी लगाते हैं, हस्ताक्षर भी करते हैं और जरूरत पड़ने पर अंगूठे का निशान लगाते हैं। यानी हम जैविकीय पहचान चिन्ह बैंक को उपलब्ध करवाते ही हैं। महत्वपूर्ण यह है कि इन चिन्हों का उपयोग केवल स्थानीय स्तर पर केवल बैंकिंग व्यवहार के लिए ही होता है; इसके विपरीत आधार पंजीयन के लिए आंखों की पुतली और सभी उंगलियों के निशान इसलिए लिए जा रहे हैं ताकि हर व्यक्ति एक किस्म की सरकारी निगरानी में आ सके। किसी भी तरह के नकद हस्तांतरण को आधार यानी विशेष पहचान पंजीयन को जरूरी शर्त के रूप में लागू नहीं किया जाना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि विशेष पहचान प्राधिकरण ने स्वयं यह घोषित किया है कि आधार पंजीयन अनिवार्य नहीं बल्कि स्वैच्छिक है। संसद की स्थाई समिति ने भी विशेष पहचान क्रमांक और प्राधिकरण पर लाए गए विधेयक को पूरी तरह से खारिज कर दिया है परन्तु फिर भी भारत सरकार इसे योजनाओं का लाभ लेने के लिए एक अनिवार्य शर्त के रूप में लागू कर रही है।
अलग-अलग तरीकों से यह सन्देश दिया जा रहा है कि यदि व्यक्ति ने विशेष पहचान क्रमांक नहीं लिया तो उसे सरकार की कोई योजना का लाभ नहीं मिलेगा।
आधार के विस्तार के लिए यह प्रचारित किया जा रहा है इससे गरीबों और झुग्गीवासियों के बैंक खाते खुलेंगे और उन्हें आवास-फोटो सहित पहचान पत्र मिल सकेगा, जबकि वास्तविकता यह है कि आवेदकों से यह कहा गया है कि वे आधार पंजीयन के लिए अपना निवास और फोटो पहचान पत्र लगाएं। यह कोई नहीं बता रहा है कि लाखों आश्रय विहीन लोग अपनी पहचान कहां से खोज कर लाएं! देश में अब तक हुए आधार पंजीयन में ऐसा कोई नहीं है जिसका पंजीयन बिना प्रमाण के हुआ हो।
यानी सच्चाई यह है कि भारत सरकार का मकसद लोगों को पहचान पत्र देना नहीं निगरानी के लिए एक डाटा बेस तैयार करना है। मुंबई, जहां देश की सबसे ज्यादा झुग्गीवासी जनसंख्या है, में गरीबों में यह सन्देश दिया गया है कि यदि आधार पंजीयन नहीं करवाया तो उन्हें बस्ती से बाहर निकाल दिया जाएगा और बिजली, पानी समेत हर सेवा वापस ली जा सकती है। एक तरह से देश में गरीबों को भयाक्रांत कर दिया गया है वे आधार की अदालत में अपराधी की तरह खड़े हों और हमेशा के लिए अपनी निजी नागरिक स्वतंत्रता राज्य के निगरानी तंत्र के सुपुर्द कर दें। और जन विरोधी नीतियों को लगातार लागू कर रही सरकार को अपने देश के सभी नागरिकों में अपराधी और आतंकवादी नज़र आता है; इंसान नहीं!
आधार या विशेष पहचान पंजीयन को प्रचारित करने के पीछे नंदन निलकेणी के नेतृत्व वाला प्राधिकरण यह तर्क देता है कि देश में करोड़ों लोगों के पास स्थाई पते और फोटो लगे पहचान पत्र नहीं हैं, आधार इस कमी को पूरा कर देगा। सवाल यह है कि पहचान के लिए ऐसे चिन्ह लिए जाने की क्या जरूरत है जो मूलतः अपराधियों की निगरानी के लिए लिए जाते हैं। इस काम के लिए आंखों की पुतलियों और हाथों की उंगलियों के सभी निशान लिए जा रहे हैं।
आधार प्राधिकरण का तर्क यह रहा है कि ये दोनों निशान कभी नहीं बदलते हैं जबकि वैज्ञानिक अध्ययन बता रहे हैं कि तीन से पांच सालों में आंखों की पुतलियों के निशान बदल जाते हैं। इसी तरह 5 सालों के बाद उंगलियों के निशान भी बदल जाते हैं। ऐसे में सवाल तो खड़ा होता ही है कि इस पूरी कवायद का मकसद क्या है?
भारत सरकार को यह पता चलने लगा है कि नागरिकों पर निगरानी रखने के लिए ये दो निशान पर्याप्त नहीं हैं, तो अब इसके लिए डीएनए का चित्र लिए जाने के प्रस्ताव पर बात हो रही है। इतना ही नहीं सरकार को यह भी पता नहीं है कि भारत में 1.20 करोड़ लोगों को कुपोषण जनित मोतियाबिंद है, उनकी आंखों की पुतलियों के निशान नहीं लिए जा सकते हैं और हर रोज मजदूरी करने वाले मजदूरों, जिनकी संख्या लगभग 15 करोड़ है, की उंगलियों के निशान भी लगभग घिस से गए हैं। क्या वे अपने सही जैविक चिन्ह दे पाएंगे और यदि उनका पंजीयन हो भी गया तो क्या उन्हें उन योजनाओं का लाभ मिल पाएगा, जिन्हें आधार से जोड़ा जा रहा है! जवाब हैं - नहीं!
क्योंकि 45 प्रतिशत संभाव्यता यह है कि किसी न किसी कारण से व्यक्ति की उंगलियों के निशान का आधार में दर्ज निशान से मिलान न हो। वास्तव में ऐसा नहीं है कि आधार से सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार होगा, सच यह है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में आधार पंजीयन को अनिवार्य बना कर सरकार अपना मकसद पूरा करना चाहती है।
प्राधिकरण यह मानकर चल रहा है कि जैविक पहचान चिन्ह (बायोमेट्रिक चिन्ह) किसी एक व्यक्ति की खास और विशेष पहचान को सुनिश्चित करते हैं, यानी एक चिन्ह का एक ही व्यक्ति होगा। अमेरिका की सुरक्षा एजेंसी सीआईए और डिफेन्स एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी के लिए अमेरिका की नेशनल रिसर्च कौंसिल ने एक अध्ययन कर बताया कि बायोमेट्रिक चिन्ह प्राकृतिक रूप से बदलते हैं।
इस चिन्ह पर आधारित तकनीकें छोटे स्तर पर तो काम कर सकती हैं पर यदि इनका बड़े स्तर पर उपयोग किया गया तो यह बड़ी समस्याएं खड़ी कर सकती है। आज बायोमेट्रिक चिन्ह किसी की पहचान की संभाव्यता है, जबकि तकनीक इसके ठीक विपरीत चलती है और मानती है कि बायोमेट्रिक चिन्ह मानक स्थिर होते हैं। 17 जुलाई 2010 को इकोनोमिक टाइम्स ने लिखा कि आधार लाखों लोगों की उंगलियों के निशान उतने साफ़ तरीके से दर्ज नहीं कर सकेगा, जितना कि वह अपने प्राधिकरण के चिन्ह में दिखाता है क्योंकि कठोर श्रम करते हुए मजदूरों की उंगलियों के निशान ही खत्म हो गए हैं। इन निशानों को तकनीकी भाषा में कम गुणवत्ता वाले निशान कहा जाता है।
इनका यदि पंजीयन हो भी गया तो ये सरकारी कल्याणकारी योजनाओं से बाहर हो जाएंगे; निश्चित रूप से भारत की सरकार चाहती भी यही है। प्राधिकरण की बायोमेट्रिक समिति ने भी यह चेतावनी दी है कि 5 करोड़ लोगों (अब तक बायोमेट्रिक चिन्ह लिए जाने वाले लोगों की यही अधिकतम संख्या है) के बायोमेट्रिक चिन्ह लिए जाने के बाद क्या ये चिन्ह विशेष रह जाते हैं, इसके कोई अध्ययन नहीं हुए हैं। भारतीय सन्दर्भ में निशानों की गुणवत्ता और सटीकता का कोई अध्ययन नहीं हुआ है।
यह अध्ययन जरूरी है क्योंकि यहां लोग चाय बागानों में काम करते हैं, समुद्र और नदियों में काम करते हैं, मजदूरी करते हैं, उनकी उंगलियों के निशान कितने सटीक होंगे, इस सवाल का उत्तर खोजा जाना जरूरी है।
पंजीयन के दौरान यह घोषणापत्र भरवाया जाता है कि आवेदक के द्वारा दी गयी सूचनाएं प्राधिकरण उपयोग में ला सकता है और इनका उपयोग जन-कल्याणकारी योजनाओं-वित्तीय सेवाओं के लिए किया जा सकता है। हर व्यक्ति की जानकारी हर उस विभाग के लिए उपलब्ध रहेगी जो अपनी योजनाओं में हितग्राहियों की जांच करना चाहता है और जो पंजीयन कर रहे हैं।
यह पूरी जानकारी इलेक्ट्रॉनिक रूप में उपलब्ध रहेगी, जिसकी सुरक्षा करना कठिन ही होगा। यानी हमारी निजी जानकारियां गोपनीय नहीं रह पाएंगी।
अब इन दो विषयों को जोड़ कर देखिए। सच यह है कि आधार की योजना इस सोच पर टिकी हुई है कि हम विभिन्न योजनाओं में सेवाएं और सीधे अधिकार देने के बजाये नकद राशि देंगे। इस सोच को राहुल गांधी ने सूचना क्रान्ति की बाद की दूसरी क्रान्ति का नाम दिया और कांग्रेस ने 'आपका पैसा आपके हाथ' के नारे के साथ 15 दिसंबर 2012 को दिल्ली में 4 लाख लोगों को हर माह पेट भरने के लिए गेहूं, चावल, डाल, तेल, ईंधन, फल खरीदने के लिए 600 रूपए देने की शुरुआत की।
और फिर 1 जनवरी 2013 से आधार आधारित नकद हस्तांतरण योजना की शुरुआत कर दी। यह 4 लाख वो लोग हैं, जो गरीब हैं पर जिन्हें गरीबी की रेखा में शामिल नहीं किया गया; क्यों; इसका कोई जवाब नहीं है। वित्त मंत्री पी चिदंबरम नकद हस्तांतरण को योजना के बारे में कहते हों -'जादुई से कम नहीं' सरकार मानती है कि हम इससे भ्रष्टाचार कम करेंगे, पर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक पर संसद की स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कह दिया है कि जब तक बैंकों का ढांचा खड़ा न हो तब तक नकद के बारे में ना सोचें। विशेष पहचान प्राधिकरण भी स्थायी समिति के सामने गया और सुझाव दिया कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के लाभों को आधार से जोड़ा जाए, पर इस समिति ने भी इस सुझाव की अनुशंसा नहीं की।