गणपति वंदन गणनायक

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- विनोद सुरोलिय ा

हिमवान कुमारी आद्यशक्ति तथा शिवसर्वात्मा के पुत्र गणेश का सारे भारत में समष्टि और व्यष्टि रूप से भाद्रपद शुक्ल की चतुर्थी को वैदिक एवं पौराणिक मंत्रों से अभिषेक तथा वंदना की जाती है।गणेश जिस प्रकार नर्तकों के लिए नाट्याचार्य हैं, उसी प्रकार ज्ञान पिपासु लोगों के लिए साहित्य के अधिष्ठाता हैं।

परिवार के लिए सुख-समृद्धि व वैभव के प्रदाता भी वे ही हैं। किसी भी उत्कृष्ट एवं साधारण लौकिक कार्य के आरंभ, मध्य तथा अंत में उनके परम दिव्य स्वरूप का प्रतिवादन व पावन स्मरण किया जाता है।

भारतीय जनमानस का कोई भी अंग श्रीगणेश पूजन से अछूता नहीं है। वाणिज्य में रत लोग अपने बहीखाते के प्रथम पृष्ठ पर ही 'श्रीगणेशाय नमः' एवं स्वास्तिक लिखकर अपने व्यापार वर्ष की मांगलिक शुरुआत करते हैं। देश के आस्तिक समाज पर इनका इतना अधिक प्रभाव है कि किसी भी कार्य का शुभारंभ 'वक्रतुण्ड महाकाय, सूर्यकोटि समप्रभो, निर्विघ्नं कुरूमे देव प्रसन्नो भव सर्वदा' के साथ किया जाता है।

श्रुति, स्मृति, पुराण, तंत्र तथा सूत्रादि ग्रंथों में कहीं उनके अप्रतिम भव्य, अलौकिक स्वरूप का वर्णन है, कहीं उनकी लीलाओं का सात्विक चिंतन है, कहीं उनके अलौकिक वैभव का पुनीत प्रकाश विकीर्ण है, कहीं उनके अनंत गुणों की जय-जयकार गुंजित तथा निनादित है।

कहीं उनके परब्रह्म ओंकारतत्व की ओर संकेत है। धार्मिक ग्रंथों के आलोड़न से हमें उनके बुद्धिप्रदाता रूप की पावन झाँकी का दर्शन होता है, जिसमें अपने एक दंत को तोड़कर उसके अग्र भाग को तुलिता के रूप में प्रयुक्त करके उन्होंने लक्ष-श्लोकात्मक महाभारत नामक पंचम वेद सदृश ग्रंथ का लेखन किया है।

उन्हें गणपति, विनायक, सुमुख, एक दंत, हेरांब, लंबोदर, विकट, धुम्रकेतू, गजानन, विघ्नेश तथा शुपकर्ण के रूप में पावन स्मरण कर, उनकी महिमा का बखान किया गया है।

गणेशजी शौर्य, साहस तथा नेतृत्व के परिचायक हैं। उनकी युद्धप्रियता का आभास उनके प्रदत्त हेरांब के नाम से प्रकट होता है। विनायक शब्द यक्षों जैसी विकरालता को इंगित करता है। विघ्नेश्वर उनके लोकरंजन तथा 'परोपकाराय सताम्‌ विभूतयः' को अभिव्यक्त करता है। उनकी महिमा भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व से फैली हुई है।

चीन में कुआन और शीतिएन, जापान में कांतिगेन शोदेन व विनाय, कंबोडिया में केनेस तथा पाईकेनिज, बर्मा में महाविएन, यूनान में ओरेनश, मिस्र में एकटोन, नेपाल में हेरांब तथा विनायक, फारस में अहुरमज्दा के नाम से वे जनमानस में पूजित हैं।

ऋग्वेद में कहा गया है कि गण का अर्थ समूह वाचक होता है। ईश का अर्थ स्वामी होता है अर्थात्‌ जो समूह का स्वामी होता है, उसे गणेश कहते हैं। शिवपुराण अनुसार गण शब्द रुद्र के अनुचर के लिए प्रयुक्त होता है।

जगद्गुरु शंकराचार्य ने अपने भाष्य में गणेश को ज्ञान और मोक्ष का अधिपति बताया है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार देव, मानव और राक्षस तीन गण होते हैं और इन सबके अधिष्ठाता गणेश हैं। राष्ट्रधर्म प्रत्येक युग में भारत का प्रधान धर्म रहा है।

इस महिमामंडित देश में गणपति के पद पर वही व्यक्ति पदारूढ़ हो सकता है, जो देश को भौतिक समृद्धि तथा जनता जनार्दन को आध्यात्मिक सुख-शांति प्रदान कर सके। एक राष्ट्र नेता में जो गुरुता व गंभीरता होना चाहिए, वह सब गणेश में निहित है।

लोकमान्य तिलक ने परतंत्रता के अवसाद भरे वातावरण में गणेश के मंगलमूलक स्वरूप को ही आधार मानकर विदेशी शासकों के विरुद्ध स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए गणेशोत्सव की शुरुआत की, जो आज लोकोत्सव के रूप में मनाया जाता है। महाराष्ट्र में गणेशोत्सव इस तरह लोकप्रिय है कि लोग प्रतिवर्ष आतुरता के साथ इसकी प्रतीक्षा करते हैं।

गणेश केवल अपनी चारित्रिक विशेषताओं से ही राष्ट्र के अभ्युदय के प्रेरणापुंज नहीं हैं, अपितु अपने अंग-प्रत्यंग, वस्त्राभूषण, मुद्रा, आयुध से भी शाश्वत गणदेवता की झाँकी प्रस्तुत करते हैं।गणेश की शारीरिक गरिमा के समक्ष गणेश का वाहन मूषक अत्यंत छोटा एवं क्षुद्र जीव है, जबकि अन्य देवी-देवताओं के वाहन विशालकाय, दीर्घकाय तथा शक्तिशाली हैं।

गणेश लघु से लघु तथा तुच्छ से तुच्छ जीव चूहे को अपने वाहन के रूप में अंगीकार कर उसे महानता प्रदान करते हैं, जो इस तथ्य को प्रदर्शित करता है कि लोकनायक को भी तुच्छ से तुच्छ जनों के प्रति स्नेहभाव रखना चाहिए।

श्री गणेश की दीर्घ नासिका सुदीर्घ अर्जित प्रतिष्ठा की रक्षा का मांगलिक संदेश देकर हमें प्रतिष्ठित कार्य-व्यापार की ओर अग्रसर बनाती है तथा लोकनायक को इस बात की प्रभावी शिक्षा देती है कि उसे ऐसे कार्य में हाथ नहीं डालना चाहिए, जिससे राष्ट्रधर्म की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचे।

गणेशजी की आँखें छोटी-छोटी हैं। वे इस बात की प्रतीक हैं कि राष्ट्रीय समस्याओं पर सूक्ष्म दृष्टि से चिंतन करने वाला ही वंदनीय होता है।

गणेशजी के लंबे कानों से यह रहस्य प्रच्छन्न है कि राष्ट्राध्यक्ष को प्रजा के दुःख-दर्द को सुनने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए। उनके हाथ में मोदक ग्रहण इस तथ्य का स्पष्ट दिग्दर्शन कराता है कि लोकनायक को हमेशा गणेश की भाँति मुदित होकर जनकल्याणकारी कार्यों से जुड़ा रहना चाहिए।

गणेश का लंबोदर रूप इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि लोकनेता का भी उदर इतना विशाल होना चाहिए कि वह सभी प्रकार की निंदा, आलोचना को पचाकर न्याय के पथ से विचलित न हो।

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