बसेरे से बहुत दूर चले गए डॉ. बच्चन

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कुछ रचनाकारों के लिए अपनी रचना का सम्मान उतने मायने नहीं रखता, जितना अपनी स्वाभाविकता और पाठकों की पसंद। इसी श्रेणी के साहित्यकार डॉ. हरिवंशराय बच्चन रहे हैं। उनकी लोकप्रिय कृति 'मधुशाला' को कई प्रबुद्धजनों ने स्तरीय रचना नहीं मानकर खारिज कर दिया था। बावजूद इसके पाठकों ने इसे बेहद पसंद किया।

सच पूछिए तो इस कृति में उनके उदात्त विचारों की सही झलक मिलती है। डॉ. बच्चन को उनकी आत्मकथा के अंतिम खंड 'दशद्वार से सोपान तक' के लिए सरस्वती सम्मान देने की घोषणा की गई थी।

इस साक्षात्कार में डॉ. बच्चन ने काव्य संबंधी अपनी चिंताएं और राजनीतिक परिस्थितियों पर खुलकर बात की थी। 'दशद्वार' में निवास करने वाले इस 'गीत विहग' के ही शब्दों में इस दशद्वार में प्राण-रूप पंछी रहता है। रहता है यह आश्चर्य है, निकल जाना स्वाभाविक है। और इन्हीं विचारों को सही साबित करते हुए उनका प्राण विहग अनंत यात्रा पर चल पड़ा।

प्रस्तुत है 2 फरवरी 1992 को डॉ. बच्चन से की गई खास बातचीत-

आपने जीवन के 84 शरद देखे हैं। कविता इस लंबी अवधि में कहाँ से कहाँ पहुँच चुकी है?
हाँ, कविता ने लंबी यात्रा तय की है। सिर्फ 84 वर्ष क्यों? आदिकवि से आज तक। पुरानी कविता पुरानी है, नई नई। पुरानी कविताएँ अच्छी हैं।

और नई कविताएँ?
उनमें तथ्य नहीं होता। लोग अब कविताएँ नहीं पढ़ते न पुरानी, न नई। एक वैराग्य-सा छा गया है। यह बात सिर्फ हिन्दी में नहीं, बल्कि सभी देशों की कविता पर लागू पड़ती है। मुझे याद है जब मैं कैम्ब्रिज में था तो भी कविता पढ़ने का विकल्प नहीं था। एक प्रोफेसर ने सर्वेक्षण किया था- शून्य प्रतिशत था कविता संग्रह पढ़ने का। आज भी वह शून्य प्रतिशत है।

लेकिन कवि सम्मेलन तो होते हैं- दूरदर्शन पर भी होते हैं?
न कवि सम्मेलन के नाम पर सिर्फ हास्य कवि सम्मेलन होते हैं। सुनने वाले शायद ऐसी ही कविताएँ चाहते हैं। अच्छी कविताएँ सुनने का मन हो तो भी सुनने को मिलती नहीं। कविताओं की पुस्तकें महँगी हैं। वैसे सभी किताबें महँगी हैं। लोग खरीदते नहीं। मैं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताएँ पढ़ता हूँ पर वे तत्वहीन होती हैं। तकलीफ होती है। पर कोई रास्ता नहीं निकलता।

गंभीर कविता लुप्त हो गई है। क्या आप ऐसा मानते हैं?
नगंभीर कविता लुप्त होने का कारण है आदर्शों और सिद्धांतों की कमी। जीवन में आदर्श रहा नहीं, सिद्धांत रहे नहीं। उसके बिना गंभीरता कैसे आए? कवि सम्मेलनों की पुरानी परंपरा नष्ट हो चली है- जो चल रही है वह नई है, पुरानी का अंश मात्र।

आप कवि सम्मेलनों में अब नहीं जाते?
बहुत दिनों से कवि सम्मेलनों में शामिल होना बंद कर चुका हूँ। वैसे भी वह उम्र नहीं रही। अस्वस्थता है- सो है।

कविता और राजनीति का प्रश्न पुरातन है और आज भी है। है न?
पुरातन कहिए या कुछ और। राजनीतिज्ञ कविता से फायदा उठाते हैं, उसे एक्सप्लॉइट करते रहे हैं। आज परिस्थितियाँ बदल गई हैं, क्योंकि कविता अब वैसी रही नहीं, जिससे राजनीतिज्ञ अपना उल्लू सीधा कर सकें।

पुराने काव्यों में रामायण आपको पसंद है, उस पर आपने लिखा भी है।
रामायण कथा है। वह काव्य भी है। इसीलिए वह आज भी बना है और पढ़ा जाता है। रामलीलाओं ने उसे और लोकप्रिय बनाया है। उसकी भाषा लोकभाषा है।

आपने श्रीमद्भागवद् गीता का अनुवाद रामायण की भाषा में किया है। उसका कारण?
लोकप्रियता और प्रचलन। रामायण सभी पढ़ते हैं, लोकप्रिय भाषा में गीता होने से उसे अधिक लोग पढ़ सकते हैं।

क्या देश की राजनीतिक परिस्थितियों में परिवर्तन होंगे- बेहतर दिन आएँगे?
आशा रखना उचित है। बदलाव तो नियम है। वह होगा, रुक नहीं सकता। फिर भी कोई ऐसा नेता नहीं दिखाई देता जो सुधार लाए। सकारात्मक नीति से लाभ होगा। गाँ धी के समान कोई नेता आए, सकारात्मक नीति अपनाए, तभी कुछ हो सकता है।

क्या आप समाचार-पत्र पढ़ते हैं- नियमित?
पेपर पढ़ता हूँ रिक्त भाव से। खबरों पर खबरें आती हैं। पढ़ लिया, बस। कुछ कर तो सकता नहीं।

ऐसा क्यों?
कुछ कवि होते हैं, जो राजनीति में कूद पड़ते हैं। मैं तो ऐसा रहा नहीं। फिर भी जब मैं लिखता था तो बहुत- सी बातें प्रतिक्रिया में व्यक्त होती थीं। अब तो लिखता नहीं। सामान्य पाठक की जो प्रतिक्रियाएं खबरें पढ़कर होती हैं, उनमें सक्रियता कहां आ पाती है?

85 वें वर्ष में आप 'सरस्वती सम्मान' से पुरस्कृत हुए हैं। आपकी भावी योजनाएँ क्या हैं?
कोई खास नहीं, कोई प्लान नहीं बनाया। कुछ सोचा भी नहीं है इस बारे में।

क्या आप जीवन के प्रति निराश हैं- आधुनिक जीवनशैली के प्रति?
आधुनिक जीवनशैली! लोग सब अपने-अपने काम में लगे हैं। जीवन- मूल्य रहा नहीं! राजनीति में नैतिकता नहीं रही।

डॉ. हरिवंशराय 'बच्चन' सहसा चुप हो गए, वे शून्य में कहीं देखने लगे। वे क्या देख रहे थे- यह इंटरव्यू का विषय नहीं, यह उनकी अपनी बात है। बहुत पहले उन्होंने अपनी एक नन्ही सी कविता में कहा है- 'बीत गए दिन वे, बीत जाएँगे ये भी।'

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