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मार्क्सवाद था राहुलजी का परमब्रह्म

Webdunia
- डॉ. बंसीधर

महापंडित राहुल सांकृत्यायन को लेकर समय-समय पर काफी लिखा जाता रहा है। फलस्वरूप पढ़ने की दृष्टि से उन पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है, किंतु श्रीनिवास शर्मा की पुस्तक 'राहुल का संघर्ष' एक पृथक कोण पर केंद्रित है। यह कोण है राहुलजी के जीवन एवं कार्यों में अविच्छिन्न संघर्ष की धारा का प्रवाहमान रहना।

पुस्तक में लेखक के अठारह (उपसंहार सहित) निबंध संकलित हैं। इनमें प्रथम चार का संबंध राहुलजी की कुल परंपरा, उनके माता-पिता, उनके प्रथम विवाह एवं उनके किशोर मन में मौजूद अस्वीकार एवं विद्रोह की मुद्रा से है। आगे आने वाले निबंधों में उनके घुमक्कड़ स्वभाव, भाषा, साहित्य तथा ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में उनकी खोजों एवं उपलब्धियों, बौद्ध धर्म तथा दर्शन के प्रति उनके झुकाव तथा दीक्षा, मार्क्सवाद, किसान आंदोलन आदि को लेकर व्यापक चर्चा हुई है।

निबंध क्रमांक चौदह-पंद्रह में राष्ट्रभाषा एवं जनपदीय भाषाओं के बारे में उनके विचार हैं। अंत के निबंधों में उनकी इतिहास दृष्टि तथा रचनाओं की संक्षिप्त रूपरेखा को विषयवस्तु बनाया गया है। वैसे तो 1910 ई. से राहुलजी की नियमित यात्राओं की शुरुआत होती है। उसके पूर्व भी घरवालों से छिपकर दो-एक शहरों को वे देख आए थे।

ग्यारह वर्ष की उम्र में हुए अपने विवाह को नकारकर वे बता चुके थे कि उनके अंतःकरण में कहीं न कहीं विद्रोह के बीजों का वपन हुआ है। यायावरी और विद्रोह ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ कालांतर में विकसित हो गईं, जिसके कारण पंदहा गाँव (जि. आजमगढ़) में जन्मा यह केदारनाथ पांडेय नामक बालक देशभर में महापंडित राहुल सांकृत्यायन के नाम से प्रख्यात हो गया।

सन्‌ 1923 से उनकी विदेश यात्राओं का सिलसिला शुरू हुआ तो फिर इसका अंत उनके जीवन के साथ ही हुआ। ज्ञानार्जन के उद्देश्य से प्रेरित उनकी इन यात्राओं में श्रीलंका, तिब्बत, जापान और रूस की यात्राएँ विशेष उल्लेखनीय हैं। वे चार बार तिब्बत पहुँचे। वहाँ लम्बे समय तक रहे और भारत की उस विरासत का उद्धार किया, जो हमारे लिए अज्ञात, अलभ्य और विस्मृत हो चुकी थी।

अध्ययन-अनुसंधान की विभा के साथ वे वहाँ से प्रभूत सामग्री लेकर लौटे, जिसके कारण हिन्दी भाषा एवं साहित्य की इतिहास संबंधी कई पूर्व निर्धारित मान्यताओं एवं निष्कर्षों में परिवर्तन होना अनिवार्य हो गया। साथ ही शोध एवं अध्ययन के नए क्षितिज खुले।

भारत के संदर्भ में उनका यह काम किसी ह्वेनसांग से कम नहीं आँका जा सकता। बाह्य यात्राओं की तरह इन निबंधों में उनकी एक वैचारिक यात्रा की ओर भी संकेत किया गया है, जो पारिवारिक स्तर पर स्वीकृत वैष्णव मत से शुरू हो, आर्य समाज एवं बौद्ध मतवाद से गुजरती हुई मार्क्सवाद पर जाकर खत्म होती है। अनात्मवाद, बुद्ध का जनतंत्र में विश्वास तथा व्यक्तिगत संपत्ति का विरोध जैसी कुछेक ऐसी समान बातें हैं, जिनके कारण वे बौद्ध दर्शन एवं मार्क्सवाद दोनों को साथ लेकर चले थे।

राष्ट्र के लिए एक राष्ट्र भाषा के वे प्रबल हिमायती थे। बिना भाषा के राष्ट्र गूँगा है, ऐसा उनका मानना था। वे राष्ट्रभाषा तथा जनपदीय भाषाओं के विकास व उन्नति में किसी प्रकार का विरोध नहीं देखते थे।

समय का प्रताप कहें या 'मार्क्सवादी के रूप में उनके मरने की इच्छा' कहें, उन्होंने इस आयातित विचार को सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान 'परमब्रह्म' मान लिया और इस झोंक में वे भारतीय दर्शन, धर्म, संस्कृति, इतिहास आदि के बारे में कुछ ऐसी बातें कह बैठे या निष्कर्ष निकाल बैठे, जो उनकी आलोचना का कारण बने।

उनकी भारत की जातीय-संस्कृति संबंधी मान्यता, उर्दू को हिन्दी (खड़ी बोली हिन्दी) से अलग मानने का विचार तथा आर्यों से 'वोल्गा से गंगा' की ओर कराई गई यात्रा के पीछे रहने वाली उनकी धारणा का डॉक्टर रामविलास शर्मा ने तर्कसम्मत खंडन किया है। मत-मतांतर तो चलते रहते हैं, इससे राहुलजी का प्रदेय और महत्व कम नहीं हो जाता।

बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद दोनों का मिलाजुला चिंतन उनके पास था, जिसके आधार पर उन्होंने नए भारत के निर्माण का 'मधुर स्वप्न' सँजोया था, जिसकी झलक हमें उनकी पुस्तक 'बाईसवीं सदी' में भी मिल जाती है। श्री राहुल ने अपने कर्तृत्व से हमें अपनी विरासत का दर्शन कराया तथा उसके प्रति हम सबमें गौरव का भाव जगाया। पुस्तक रोचक बन पड़ी है। निबंधों में राहुलजी से संबंधित अनेक अनछुए पहलू भी सामने आए हैं।

पुस्तक : राहुल का संघर्ष
लेखक : श्रीनिवास शर्मा
प्रकाशक : रामकृष्ण प्रकाशन, हॉस्पिटल रोड, विदिशा
मूल्य : 130 रु.

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