रंगों की फागुनी दस्तक

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- डॉ. सीमा शाहजी

फागुन की बयार धीरे-धीरे बहने लगी है। क्या उसकी अनूठी सरसराहट आप महसूस कर रहे हैं? धरती का माथा अबीर हो गया है, गाल गुलाल हो गए और आँखें लाल। क्या आप देख रहे हैं गाँव-कस्बे की बस्ती में कहीं फाग का संगीत ढोल-मंजीरों से लय पाकर फिजाओं में घुल रहा है। क्या आपके कान सुन रहे हैं? भले ही आपकी आपाधापी में जीवन की मधुरिमा का यह स्पंदन फिलहाल अनसुना... अनदेखा हो गया हो, पर यह सच है कि प्रकृति के आँगन में फागुन ने अपनी उत्सवधर्मी दस्तक दे दी है। उसे आपकी रफ्तार से कोई वास्ता नहीं। फागुन आ गयाहै और पूरे ठाठ के साथ आ गया है।

हम कहाँ से ले आए ये तीज-त्योहार-पर्व। प्रकृति की थाल में सजी ऋतुओं और मौसमी अनुभूतियों को जब जीवन के उल्हास के साथ हमने जीना शुरू किया तो उसे उत्सव का, पर्व का नाम दिया। फागुन पर्व होली भी इस देश की मिट्टी का प्रकृति पर्व है। इसी पर्व के जरिए हम अपनी जमीन के संपन्ना संसार में लौटते हैं। जीवन से जुड़ते हैं। विश्व को अपनी पहचान देते हैं।

होली रंगों का त्योहार है। ये तमाम रंग मिलकर हमारी अभिव्यक्ति का प्रतीक बनते हैं। यह उत्सव आत्मा के स्तर पर होता है। किसी त्योहार से यदि हम आत्मिक भाव से नहीं जुड़े तो उसका गाढ़ा रंग हम पर नहीं चढ़ेगा। होली का प्रत्येक रंग अपना संदर्भ लिए है। लाल रंग प्रीति का है। गुलाबी रंग से उत्साह झलकता है। हरा रंग प्रसन्नता का प्रतीक है। पीला या वासंती रंग संपन्नता का संदेश देता है। सफेद पवित्रता का पर्याय है। काला और बैंगनी वर्जित है। ये मलीनता और पाप के प्रतीक माने जाते हैं। विशेष तौर पर प्रारंभ के पाँच रंगों से होली खेली जाती है।

ये रंग ही विभिन्न भावनाओं के संवाहक है। जब ये रंग एक साथ बरसते हैं तो व्यक्ति का वेश-केश-देश सब एक रंगी हो जाता है। पूरा आदमी रंगों का मिलाजुला पुंज बन जाता है और सारी धरती फागमय हो जाती है। लेकिन इन रंगों की आध्यात्मिक उपस्थिति आज हमारी प्रकृति से नदारद है। न ये रंग भौतिक जीवन में अपना अर्थ कायम रख सके हैं और न ही हमारी अंतरंग अनुभूतियों से उनका गहरा वास्ता रह गया है। न परंपरागत संस्कार और रीति-नीति से!!! एक अनियंत्रित किस्म की हुड़दंग, बेतरतीब शैली और अधकचरी मानसिकता के बीच त्योहार संपन्ना हो जाता है। होली के साथ जुड़ी मान्यताओं को जानने, उनमें रमने का अवकाश और आचरण अब शेष नहीं रहा।

बसंत पंचमी के स्नान-दान के धार्मिक कृत्य से शुरू होने वाले बसंत-ऋतु के अंतिम त्योहार के रूप में पूरा भारतीय समाज होली के लिए प्रतीक्षा करता था। इसी के साथ किसान खेत-खलिहानों में जुट जाने का संकल्प इसी होली के साथ लेते थे। पलाश के प्राकृतिक रंगों, लाल-गुलालों से सराबोर होकर न केवल उछात भरी खुशियों में डूबते थे, बल्कि फागुनी पूनम की रात में जलने वाली होलिका की आकाश-गामी लपटों से अपने भविष्य का पाठ भी पढ़ा करते थे। होली की लपटों की दिशाएँ किसान को 'महँगी-सस्ती', 'वर्षा-सूखा' का भी भान कराती थीं।

बसंत पंचमी से गड़ जाने वाला 'डांडा' और ढोल-मंजीरे-झाँझ-करतालों की उठती-गिरती हिलोरें अब कहाँ हैं? दादा-दादी और नाना-नानी के अवचेतन में सोयी भक्त प्रहलाद और होलिका की कहानी मुखर होने को बेचैन है। पर उन्हें मगन होकर सुनने वाले नौनिहालों केसिर पर या तो पढ़ाई और परीक्षाओं का बोझ है या टीवी चैनलों से बहकर आए मीठे-जहरीले-पनीले कार्यक्रमों को निहारते वे अपनी ममा-डैड-दोस्तों के साथ मशगूल हैं। फिर भी, होलिका तो अब भी रात को जलेगी।

हमारे बुजुर्ग यादों में खो जाते हैं तो उनके पोपले मुँह से कई रंग झरने लग जाते हैं। जैसे- उन दिनों घड़ियाँ तो थी नहीं, लोग दूसरे गाँव की होली जलती देखकर अपने गाँव की होली जलाते थे। पूरे गाँव के आबाल-वृद्ध अपने खलिहानों से उस समय तक कटी फसलों के डंठलों को हाथ में लिए पहुँचते थे। होलिका में आग लग जाने के बाद लोग अपने हाथ में लिए डंठलों को परिक्रमा करते हुए होलिका में डालते थे और थोड़ा-सा बचाकर उसका अग्रभाग आग में झुलसाकर घर ले आते थे। उसे घर के ओसारे में कहीं खोंस देते थे। कुछ लोग गोबर का कंडा भी थोड़ा सा जलाकर उसे वर्षभर सुरक्षित रखते थे। उनका मानना था कि इससे पशुओं को बीमारी नहीं होती। घर की महिलाएँ बच्चों और खुद को सरसों के उबटन से मलती थीं और उस लेप को होली की आग में डाल दिया जाता था। विश्वास था कि ऐसा करने से खसरा नहीं होता और बुरी बलाएँ टल जाती हैं।

होली- यानी अग्नि का और अग्नि देवता का प्रतीक है। उसकी पूजा-अर्चना पूरे विधि-विधान के साथ होती थी और पूनम के दिन अपनी परंपरा और हैसियत के अनुसार मिष्ठान्ना और अन्य व्यंजन बनाकर हर्ष व्यक्त किया जाता था। भारतीय पर्वों, त्योहारों में राधाकृष्ण तोशाश्वत मिथक के रूप में व्याप्त हैं। बृज की होरी का उल्लास तो जैसे होली का त्योहार मनाने का मानक बन गया है। सब उस पर्व-प्रेम-स्नेह के गझिन गुच्छे को छू लेने का उत्साह अपने भीतर रखते हैं, लेकिन इच्छाओं के भीतर-स्नेह पगे रंगों में वह पावनता नहीं है, जो कभीहुआ करती थी। अब की इच्छाएँ मटमैली हैं। कृष्ण की रंगमयता, उनकी लीलाएँ अब सिर्फ दृष्टांत हैं। साँवरे के रंग में गोरी का डूबना अब अभेद नहीं स्वार्थ में एक होकर विभेद हो जाना भर रह गया है। बच्चों के हाथों में पिचकारी की शक्ल पिस्तौल और डायनासोर की होगई है। अबीर-गुलाल की जगह तेलीय रंग, वार्निस, केमिकल युक्त गुलाल इत्यादि का इस्तेमाल होने लगा है। सालभर व्यस्तता में डूबा मोहल्ले का पड़ोसी होली के दिन भी छिटका रहने लगा है। संस्कारों और रीति-रिवाजों की टोह में लौटने वाले इस दिन भी अभिजात्य वर्ग समाजसे दूरी बनाए रखते हुए रेडीमेड पर विश्वास करता है।

सवाल उठता है कि क्यों नहीं हम भी सूरज के प्रकाश की तरह सहज भाव से प्रेम के रंग में भीग पाते हैं? जाति-धर्म-संप्रदाय की दीवारों को तोड़ने के लिए ही होली जैसे पर्व आते हैं। होली के रंग में डूबकर हम अरूप बनें। अनाम बनें। भारतीय बनें। अब तो मन को...आत्मा को रंगने की बेला है। ये बढ़ती हुई दूरियाँ... टूटते हुए संबंध... तनाव के टंगे हुए चंदौबे... भव्य-चकाचौंध में संवेदनाओं के फीके-फीके पड़ते रंग, भारतीय त्योहारों की व्यापक परिधि को मात्र सिकोड़ ही नहीं रहे, बल्कि उनकी प्रासंगिकता और ऐतिहासिकतापर भी आज प्रश्न उठा रहे हैं। इसलिए जरूरी है कि इस बार मन को प्रेम व सद्भाव के रंगों से रंगा जाए।

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