Biodata Maker

विश्व मंच पर पहचान बनाती भारतीय कला

जिद व जिजीविषा में निरंतरता रखनी होगी

Webdunia
- संजय द्विवेदी
ND
देर से ही सही भारतीय ललित कलाएँ विश्व की कला दुनिया में अपनी जगह बना रही हैं। शास्त्रीय संगीत और नृत्य से शुरुआत तो हुई पर अब चित्रकला की दुनिया में भी भारत की पहल को स्वागतभाव से देखा जा रहा है। सतत जिद और जिजीविषा के चलते भारतीय कलाकारों की यह सफलता हमारे गर्व करने का विषय है।

आधुनिक भारतीय चित्रकला का इतिहास लगभग डेढ़ शताब्दी पुराना है जब मद्रास, कलकत्ता, मुंबई और लाहौर में कला विद्यालय खोले गए। तब की शुरुआत को अपेक्षित गरिमा और गंभीरता मिली राजा रवि वर्मा के काम से। वे सही अर्थों में भारतीय चित्रकला के जन्मदाता कहे जा सकते हैं। केरल के किली मन्नूर नामक एक गाँव में 29 अप्रैल, 1848 को जन्में राजा रवि वर्मा के आलोचकों ने भले ही उनकी ‘कैलेंडर आर्टिस्ट’ कहकर आलोचना की हो परंतु पौराणिक कथाओं के आधार पर बने चित्र व पोट्रेट उनकी पहचान बन गए।

हेवेल और अवनीन्द्र नाथ टैगोर ने 19 वीं सदी के आखिरी दशक में गंभीर और उल्लेखनीय काम किया, जिसे, ‘बंगाल स्कूल’ के नाम से भी संबोधित किया गया। बाद में रवीद्रनाथ टैगोर, अमृता शेरगिल से होती हुई यह परंपरा मकबूल फिदा हुसैन, सैयद हैदर रजा, नारायण श्रीधर वेन्द्रे, फ्रांसिस न्यूटन सूजा, वी.एस. गायतोंडे, गणेश पाइन, के.जी. सुब्रह्मण्यम, गुलाम मोहम्मद शेख, के. सी. ए. पाणिक्कर, सोमनाथ होर, नागजी पटेल, मनु पारेख, लक्ष्मा गौड़, विकास भट्टाचार्य, मनजीत बावा, रामकिंकर बैज, सतीश गुजराल, जगदीश स्वामीनाथन, रामकुमार और कृष्ण रेड्डी तक पहुँची।

ND
जाहिर है, इस दौर में भारतीय कला ने न सिर्फ नए मानक गढ़े, वरन् वैश्विक परिप्रेक्ष्य में अपना सार्थक हस्तक्षेप भी किया। विदेशों में जहाँ पहले भारतीय पारंपरिक कला की माँग थी और उनका ही बाजार था। अब गणित उलट रहा है। विदेशी कलाबाजार में भारतीय कलाकारों की जगह बनी है। इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय कला के सामने न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में कायम रहने की चुनौती है, वरन अपने लिए बाजार की तलाश भी करनी है।

बाजार शब्द से वैसे भी कला-संस्कृति क्षेत्रों के लोग चौंक से उठते हैं । न जाने क्यों यह माना जाने लगा है कि बाजार और सौंदर्यशास्त्र एक दूसरे के विरोधी हैं, लेकिन देखा जाए तो चित्र बनना और बेचना एक-दूसरे से जुड़े कर्म हैं। इनमें विरोध का कोई रिश्ता नहीं दिखता। लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि इस रिश्ते के चलते क्या कला तो प्रभावित नहीं हो रही? उसकी स्वाभाविकता एवं मौलिकता तो नष्ट नहीं हो रही, या बाजार के दबाव में कलाकार की सृजनशीलता तो प्रभावित नहीं हो रही?

वैसे भी कलाओं के प्रति आम भारतीय समाज में किसी प्रकार का उत्साह नहीं दिखता। बहुत हद तक समझ का भी अभाव दिखता है। सो प्रायोजित चर्चाओं के अलावा कला के बजाय कलाकारों के व्यक्तिगत जीवन के बारे में ज्यादा बातें छापी और कहीं जाती हैं। अंग्रेजी अखबार जो प्रायः इस प्रकार के कलागत रूझानों की बात तो करते हैं, किंतु उनमें भी कला की समीक्षा, उसके, रचनाकर्म या विश्व कला परिदृश्य में उस कृति की जगह के बजाय कलाकार के खान-पान की पसंदों उसके दोस्तों-दुश्मनों, प्रेमिकाओं, कपड़ों की समीक्षा ज्यादा रहती है।

मकबूल फिदा हुसैन को लेकर ऐसी चर्चाएँ प्रायः बाजार को गरमाए रहती हैं। ‘माधुरी प्रसंग’ को इस नजरिए से देखा जा सकता है। आज ऐसे कलाकार कम दिखते हैं जो अपने कलालोक में डूबे रहते हों - प्रचार पाना या प्रचार को प्रायोजित कराना कलाकार की विवशता बनता जा रहा है।

कुछ साल पहले कलाकार अंजली इला मेमन ने अपने जन्मदिन पर आयोजित कार्यक्रम में एक स्त्री के धड़ के रूप में बना केक काटा। इससे वे क्या साबित करना चाहती हैं, वे ही जाने पर ‘प्रचार की भूख’ इससे साफ झाँकती है। कला प्रदर्शनियों के उद्घाटन में भी कभी-कभी ऐसे दृश्य दिखते हैं, जैसे कोई पार्टी हो। इन पार्टियों में हाथ में जाम लिए सुंदर कपड़ों में सजे-सधे कला प्रेमियों की पीठ ही दीवार पर टँगी कलाकृतियों की ओर रहती है।

इस उत्सवधर्मिता ने नए रूप रचे हैं। पत्र-पत्रिकाओं का रुझान भी कला संबंधी गंभीर लेखन की बजाय हल्के-फुल्के लेखन की ओर है । कुछ कलाकार मानते हैं कि पश्चिम में भारतीय कलाकारों की बढ़ती माँग के पीछे अनिवासी भारतीयों का एक बड़ा वर्ग भी है, जो दर्शक ही नहीं कला का खरीददार भी है।

ND
लेकिन सैयद हैदर रजा जैसे कलाकार इस माँग के दूसरे कारण भी बताते हैं। वे मानते हैं कि पश्चिम की ज्यादातर कला इस समय कथ्यविहीन हो गयी है। उनके पास कहने को बहुत कुछ नहीं है। प्रख्यात कवि आलोचक अशोक वाजपेयी के शब्दों में- ‘स्वयं पश्चिम में आधुनिकता थक-छीज गई है और उत्तर आधुनिकता ने पश्चिम को बहुकेंद्रिकता की तलाश के लिए विवश किया है। पश्चिम की नजर फिर इस ओर पड़ी है कि भारत सर्जनात्मकता का एक केंद्र है।’

सही अर्थों में भारतीय कला में भी अपनी जड़ों का अहसास गहरा हुआ है और उसने निरंतर अपनी परंपरा से जुड़कर अपना परिष्कार ही किया है। सो भारतीय समाज में कला की पूछताछ बढ़ी है। ज्यादा सजगता और तैयारी के साथ चीजों को नए नजरिए से देखने का रुझान बढ़ा है। कला का फलक बहुत विस्तृत हुआ है। इतिहास, परंपरा से लेकर मन के झंझावतों की तमाम जिज्ञासाएँ कैनवास पर जगह पा रही हैं।

बाजारवाद के ताजा दौर ने दुनिया की खिड़कियाँ खोली हैं। इसके नकारात्मक प्रभावों से बचकर यदि भारतीय कला अपनी जिद और जिजीविषा को बचाए और बनाए रख सकी तो उसकी रचनात्मकता के प्रति सम्मान बढ़ेगा ही और वह सकारात्मक ढंग से अभिव्यक्ति पा सकेगी।

Show comments
सभी देखें

जरुर पढ़ें

Toilet Vastu Remedies: शौचालय में यदि है वास्तु दोष तो करें ये 9 उपाय

डायबिटीज के मरीजों में अक्सर पाई जाती है इन 5 विटामिन्स की कमी, जानिए क्यों है खतरनाक

एक दिन में कितने बादाम खाना चाहिए?

Vastu for Toilet: वास्तु के अनुसार यदि नहीं है शौचालय तो राहु होगा सक्रिय

Winter Health: सर्दियों में रहना है हेल्दी तो अपने खाने में शामिल करें ये 17 चीजें और पाएं अनेक सेहत फायदे

सभी देखें

नवीनतम

Maharaja Chhatrasal: बुंदेलखंड के महान योद्धा, महाराजा छत्रसाल, जानें उनसे जुड़ी 10 अनसुनी बातें

Armed Forces Flag Day 2025: सेना झंडा दिवस क्यों मनाया जाता है, जानें इतिहास, महत्व और उद्देश्य

Ambedkar philosophy: दार्शनिक और प्रसिद्ध समाज सुधारक डॉ. बी.आर. अंबेडकर के 10 प्रेरक विचार

Dr. Ambedkar Punyatithi: डॉ. भीमराव अंबेडकर की पुण्यतिथि, जानें उनके जीवन के 10 उल्लेखनीय कार्य

अयोध्या में राम मंदिर, संपूर्ण देश के लिए स्थायी प्रेरणा का स्रोत