सन्नाटे का द्वंद्व-अज्ञेय

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- अपूर्वा बेनर्ज ी

लगभग अर्धशती तक अपने रचनाकर्म से हिन्दी जगत को प्रभावित रखने वाले सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय समर्थ एवं विराट व्यक्तित्व के धनी रहे हैं। अज्ञेय की महानता उनके व्यक्तित्व की निजता में थी। अज्ञेय ही थे जिन्हें भौतिक जगत की कोई पीड़ा जैसे विचलित ही नहीं करतीथी जिन सुख-साधनों के लिए लोग निकृष्टतम समझौते करते हैं उन सुख सुविधाओं को बिना कोई समझौता किए अपनी साधना के बल पर अज्ञेय ने कई बार अर्जित किया और कई बार ठोकर भी मारी है।

फौज में रंगरूट से आरंभ करके कैप्टन के पद तक पहुँचना और युद्ध समाप्ति पर पद छो़ड़कर अनिश्चय की स्थिति स्वीकार करने का माद्दा अज्ञेय जैसा सृजक ही रख सकता है। यही नहीं दिल्ली में आकाशवाणी की नौकरी करते हुए जब प्रतीक के संपादन की योजना बना ली तो एकझटके में आकाशवाणी की नौकरी भी छोड़ दी। अज्ञेयजी के पास पश्चिमी साहित्य से लेकर अर्वाचीन-प्राचीन साहित्य के अध्ययन-अवलोकन का विस्तृत भंडार था और इसके पीछे थी 'यायावर अज्ञेय' की साधना। यूं तो अज्ञेय जीवन भर यायावर बने रहे किन्तु सन्‌ 1952 से 1955 तकभारत के कलातीर्थों, पहाड़ों, खंडहरों में यायावरी करते हुए उन्होंने अपनी सृजनशीलता को गतिमान बनाए रखा। भारत के बाहर योरप, फ्रांस और जापान की यात्राओं के दौरान वहां के साहित्य और संस्कृति के साथ अध्यात्म को भी अज्ञेय ने जाना और समझा।

हाथ में कैमरा अज्ञेय की पहचान बन गया था। अज्ञेय ने अपने व्यक्तित्व में ऐसी कई खूबियां समाहित कर ली थीं जो कल्पना से परे हैं। अज्ञेय ने अपने सृजनाशील व्यक्तित्व के बारे में कहा था- 'मैं कपड़े सी लेता हूँ, जूते गांठ लेता हूँ, फर्नीचर जोड़ लेता हूँ, विलायती ढंग से बाल काट लेता हूँ, मूर्तियां बना लेता हूँ, गमले बना लेता हूँ, फूलों व तरकारी की खेती कर लेता हूँ, और इन सबमें केवल शौक रखता हूँ ऐसा नहीं है। अधिकांश में से किसी के भी सहारे आजीविका कमा ले सकता हूँ।' ऐसा बिरला व्यक्तित्व रवीन्द्रनाथ के अलावा शायद ही किसी का रहा हो।

अज्ञेय को जानने और समझने में उनके आरंभिक जीवनकाल और पृष्ठभूमि से भी मदद मिलती है। अज्ञेय का जन्म कसया के पुरातत्व खुदाई शिविर में हुआ था। शिक्षा की शुरुआत संस्कृत भाषा के अध्ययन से की। बाद में सन्‌ 1915 से 1919 तक जम्मू व श्रीनगर में रहते हुए उन्होंने अंगरेजी व फारसी भाषा का अध्ययन किया और पटना, लाहौर तथा मद्रास में अपनी शिक्षा पूरी की। पटना में रहते हुए ही सच्चिदानंद के मन में अंगरेजों के प्रति विद्रोह का बीज अंकुरित हुआ था जो समय के साथ और गहरा होता गया। परिणामस्वरूप जब अज्ञेय का परिचय चंद्रशेखर आजाद,सुखदेव और भगवती चरण बोहरा जैसे क्रांतिकारियों से हुआ तो वे क्रांतिकारी दल में शामिल हो गए।

उसी समय अज्ञेय बम बनाने वाले कारखाने के वैज्ञानिक सलाहकार भी बने। अँगरेजी साहित्य में एम.ए. करते समय उन्हें 'शेख मुहम्मद बक्श' के नाम से गिरफ्तार किया गया था लेकिन अज्ञेय की रचना यात्रा निरंतर चलती रही। सन्‌ 1930 से 1934 तक जेल में, फिर नजरबंदी की स्थिति में सच्चिदानंद वात्स्यायन ने अपना साहित्य सृजन आरंभ कर दिया था। 'अज्ञेय' नाम भी उन्हें संयोगवश मिल गया था। अपने एक साक्षात्कार में डॉ. इन्द्रनाथ चौधरी को अज्ञेयजी ने बताया था कि मैं जब जेल में था तब दो-तीन कॉपी में नकल करके मेरी कहानियाँ जगह-जगह भेज दी गईं ताकि वे सुरक्षित रहें कुछ कहानियाँ जैनेन्द्र कुमारजी के पास पहुँची थीं और उन्होंने दो कहानियाँ प्रेमचंदजी को भेज दीं।

प्रेमचंदजी को दो कहानियाँ अच्छी लगीं और उन्होंने (जैनेन्द्रजी को) लिखा कि कहानियाँ तो दोनों अच्छी लगी हैं और एक कहानी मैं छापना भी चाहता हूँ लेकिन यह तो बताइए कि लेखक कौन हैं? मैं क्योंकि जेल में था और कहानियाँ चोरी से बाहर भेजी गई थीं। इसलिए नाम तो बताया नहीं जा सकता था तो जैनेन्द्रजी ने उन्हें यही लिखा कि नाम तो मैं नहीं बता सकता हूँ - वे तो अज्ञेय हैं। प्रेमचंदजी ने फिर इसी नाम से पहली और फिर दो-एक कहानियाँ छापीं।

जिस तरह 'अज्ञेय' के नाम का रहस्य पता चला उसी तरह अज्ञेय के मौन के बारे में कई तथ्य पता चले। पाठकों का एक बड़ा वर्ग इस बात से अछूता नहीं है कि अज्ञेय की चुप्पी का जाने क्या-क्या अर्थ लोगों ने लगाया है। उनकी चुप्पी को अहं की संज्ञा भी मिली तो उसे उनकेअभिजात्य का प्रतीक भी माना गया। लेकिन इसकी गहराई को, इसकी सशक्त वजह को पं. विद्यानिवासजी मिश्र ने अपने एक आलेख में स्पष्ट करते हुए लिखा है- जवानी के दूसरे चरण में विज्ञान और साहित्य की पढ़ाई छूटी, वे सशस्त्र क्रांति के पथ पर आए, पकड़े गए, जेल की ऐसी यातनाएं सहीं कि पिघला हुआ लोहा वज्र बन गया। अज्ञेय की मुखरता सकारण चुप्पी में बदल गई, बड़े प्रयत्न से चुप्पी साधी गई। उन्हें जेल में थोड़ी-थोड़ी मात्रा में पारे का जहर दिया गया, जिसके कारण वे तनिक-सी बात पर उबल जाते थे, पर उन्होंने कठोर संकल्प से चुप रहने का अभ्यास किया। वह अभ्यास तभी काम नहीं आता था जब कोई ऐसी बात घट जाए जिससे देश का सम्मान आहत होता हो।' मौन के इस शिल्पी ने अपने व्यक्तित्व को व्यक्त करते हुए लिखा हैं-
मैं सभी ओर से खुला हूँ
वन सा, वन सा अपने में बन्द हूँ
शब्द में मेरी समाई नहीं होगी
मैं सन्नाटे का द्वंद्व हूँ।

अज्ञेय ने ताउम्र प्रयोग किए जीवन में भी और साहित्य में भी। जितना विराट और विविधता से परिपूर्ण उनका व्यक्तित्व रहा उतना ही व्यापक उनका सृजन क्षेत्र भी था। जिस भी विधा को उन्होंने स्पर्श किया। मानों वह उनकी हो गई। कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण सभी में अज्ञेयजी ने कालजयी सृजन किया है। वे जितने उच्चकोटि के कवि थे उतने ही श्रेष्ठ उपन्यासकार, उसी कोटि के कहानीकार, उतने ही संवेदनशील संस्मरण लेखक और उसी तरह के चिंतक भी। सबसे बड़ी विशेषता उनकी यह थी कि वे एक विधा पर दूसरी विधा को हावी नहीं होने देते थे।

अज्ञेय ने काव्यकृति 'चिन्ता' का सृजन जेल में रहते हुए ही किया। सन्‌ 42 में प्रकाशित इस कृति में 106 गीतों के साथ गीतात्मक गद्याँश भी गुँथे हैं। कवि की प्रथम कृति 'भग्नदूत' और 'चिन्ता' के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अज्ञेय की कविता यात्रा का प्रारंभ गीत सृजन से होता है। अज्ञेय की काव्य दृष्टि वैश्विक थी। नई कविता के जनक के रूप में अज्ञेय के अहं की चर्चा बहुत हुई। इत्यलम और हरी घास पर क्षण भर जैसी कृतियों में 'मैं के' प्रति अगाध आसक्ति दिखाई देती है। दूसरी ओर समर्पण का स्वर बावरा अहेरी से लेकर आगे की अधिकांश रचनाओं में मुखर होता गया है।

असाध्य वीणा में वीणावादक केशकम्बली के इन शब्दों पर ध्यान दें तो महसूस होता है कि यहां अज्ञेय का स्वर समर्पण की पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है-
' श्रेय नहीं कुछ मेरा-
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था
सुना आपने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था
वह तो सब कुछ थी, तथता थी
महाशून्य, वह महामौन
अविभाज्य अनाप्त, अद्रवित अप्रमेय
जो शब्दहीन सबमें गाता है।

कवि अज्ञेय की अन्य विशिष्टताओं के साथ उनकी प्रणय अनुभूति की अभिव्यक्ति की मौलिकता भी उतना ही महत्व रखती है। अज्ञेयजी ने 'दूसरा सप्तक' की भूमिका में लिखा है- 'मनुष्य के मूल रागात्मक संबंध नहीं बदलते वे तो प्रारंभ से ही ज्यों के त्यों बने हैं, परंतु प्रणालियाँ बदलती रहती हैं। प्रतीक बदल जाते हैं।'
यह नहीं कि मेरा प्यार मैला है
या कि उथला है
ये उपमान मैले हो गए हैं
देवता इन प्रतीकों के
कर गए हैं कूच।

संक्षेप में की गई ये काव्य चर्चा अभी भी अधूरी है। इसे पूर्णता देने के लिए जरूरी है कि कवि सृजन की प्रेरणा के केंद्रीय तत्व 'दर्द' पर बात की जाए। अज्ञेय के प्रणय जीवन का सबसे बड़ा पाथेय रहा है दर्द-
दुःख सबको माँजता है
और सबको मुक्त करना वह न जाने
किन्तु
जिनको माँजता है।
उन्हें यह सीख देता है
कि सबको मुक्त रखें।

उपन्यासकार के रूप में उनकी तीन कृतियाँ प्रसिद्ध हैं- 'शेखर एक जीवनी' 'नदी के द्वीप' तथा 'अपने-अपने अजनबी।' 'शेखर एक जीवनी' का जन्म स्थल भी जेल ही बना था। ये एक अभूतपूर्व घटना की तरह है। लेखक की स्वयं की आत्मस्वीकृति के अनुसार 'शेखर घनीभूत वेदना की केवल एक रात में देखे गए विजन को शब्दबद्ध करने का प्रयास है।' यह उपन्यास निश्चित ही कथावस्तु, शैली, शिल्प तथा भावबोध के स्तर पर अपना विशिष्ट स्थान रखता है।

' नदी के द्वीप' उपन्यास की रचना प्रतीकात्मक शैली में की गई है। जबकि 'अपने-अपने अजनबी' हिन्दी का अपनी शैली में एकमात्र उपन्यास है जिसे हिन्दी अस्तित्ववादी प्रवृत्ति की संज्ञा दी गई है। कहानी के क्षेत्र में भी अज्ञेय ने विषय और शैली की दृष्टि से कुछ अभिनव प्रयोग किए हैं। कहानी कला के उत्कृष्ट उदाहरणों के रूप में रो.ज, शरणार्थी, कोठरी की बात, और 'वे दूसरे' काफी चर्चित रही है।

पत्रकारिता के क्षेत्र में अज्ञेय ने अमूल्य योगदान दिया है। अज्ञेय ने जिन पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया वे हैं- सैनिक, आरती, विशाल भारत, बिजली, प्रतीक, दिनमान, नया प्रतीक, थॉट वॉक, एवरीमैन्स वीकली, नवभारत टाइम्स। हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में दिनमान ने क्रांतिकारी कार्य किया। उसके संपादकीय, घटना-विवरण उसमें उल्लेखित विदेशी कृतियों और कृतिकारों के नामों का सही उच्चारण आदि। कुछ ऐसी बातें हैं जिनकी वजह से हिन्दी पत्रकारिता ने नए आयाम स्थापित किए।

अज्ञेयजी का संस्मरण इतना बहुआयामी है उसमें इतिहास, भूगोल, साहित्य और संस्कृति के अन्य तत्वों की इतनी गहरी पर्ते हैं कि पढ़ने वाला स्फूर्ति से भरता चला जाता है। अरे! यायावर रहेगा याद! एक बूंद सहसा उछली, स्मृतिलेखा जैसी पुस्तकों से सहज ही पता चल जाता है कि उनकी सृजनशीलता वय की सीमाओं का अतिक्रमण करती हुई क्यों अन्त तक वैसी ही जीवन्त और प्रेरणादायिनी बनी हुई है वे जीवन के अंतिम दिवसों में भी सृजनशील रहे।

वे नर्मदा के उद्गम से संगम तक के महत्वपूर्ण स्थलों की यात्रा करना चाहते थे लेकिन उनकी यह साध अधूरी ही रह गई। एक दिन ऐसा आया कि जब जीवन की धज्जियाँ उड़ाने वाला किन्तु स्निग्ध सपनों की सुनहली फसल उगाने वाला यह महान शिल्पी असाध्य वीणा के स्वरों को साधता संसार से विदा हो गया। वीणा के स्वर सन्नाटे के छंद में बिला गए। अज्ञेय चले गए लेकिन एक-एक पल को उसकी जीवंत अर्थवत्ता में जीने वाला यह यायावर इस धूल मिट्टी, इसी घमासान, इसी महासमर में एक बार फिर लौटने का स्वप्न देख गया है।

साहित्य का यह महानायक अपनी प्रतिश्रुति में हम सबको आश्वासन दे गया है- लेकि न/फिर आऊँगा में लिए/ झोली में अग्निबीज/ धारेगी जिसको धरा तापसे/ होगी रत्नप्रसू।
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