घर और घर

Webdunia
- हरदर्शन सहग ल

माँ स्पष्ट स्वर में स्वीकारती है- 'तू हमारे घर आ ई, तो हमने और बच्चों की ख्वाहिश नहीं रखी। अपनी सीमाओं को हम भली प्रकार समझते थे। तेरे पिता हमेशा एक ही बात कहा करते थे- पूजा-भक्त ि, पुण्य-दान की लंबी-चौड़ी बाते ं, मैं नहीं जानता। समाज तथा देश की प्रगति में यदि हम योगदान देना चाहते हैं तो हमें अपनी औलाद को खूब योग्य बनाना होगा। उन्हें अपने जीवन स्तर से बहुत ऊँचा उठाना होगा और मेरे सामने सबसे बड़ा धर्म भी यही है ।

शाम को घर लौटते समय मैं बहुत उदास थी। छुट्टी के दिन मेरे साथ प्रायः यही होता। सुबह-सवेरे नहा-धोकर थोड़ा नाश्ता करने के बा द, पुष्पा के बंगले पहुँच जाती। दोनों सखियाँ कुछ देर तक पढ़तीं। फिर शहतूत के पेड़ से लगे हुए झूले पर मिलकर पेंग बढ़ातीं। गुनगुनातीं। पेड़-पौधों में लुका-छिपी खेलतीं। खाना खातीं। थोड़ा आराम करतीं और फिर पढ़ने बैठ जातीं।

शाम हो जाती। शाम को अपने घर लौटते वक्त मन उदास-उदास हो जाता- एकदम खिन्न। का श, मैं भी इतने बड़े हरे-भरे खूबरत दीवारों और फूलदार फर्श वाले घर में रह सकती।

रास्तेभ र, घर पहुँचने से पूर्व कुछ दृश्य मेरी आँखों के सामने गड्डमड्ड होक र, मेरी चाल को और सुस्त बना देते। तंग गली में एक टूटे-फूटे फर्श और छोटी दीवारों वाला मकान। माँ की फटी धोती। जूठे बर्तनों में सने हाथ। सामने बैठे गली के आवारा कुत्ते। घर क ी सिली बनियान पहन े, नंगी चारपाई पर लेटे पिता। सबकुछ उल्टा। पुष्पा के घर से विपरीत माहौ ल, मुझे अस्त-व्यस्त कर देता। आज वहीं रह जाती तो क्या बुरा थ ा? अपने से प्रश्न करती। चलने से पूर्व पुष्पा ने कहा था- 'नीत ा, आज रात यहीं रह जा। अपन दोनों रा त तक पढ़ेंगी। फिर अगरतेरा मूड हु आ, तो रात को ताश भी चलेगा ।' अक्सर इसी तर ह, तरह-तरह के पढ़ने-खेलन े, खाने-पीने के प्रलोभन दे-देकर पुष्पा मुझे रोकने की कोशिश करती। मगर मैं रुकती नहीं।

एक बार मैंने रुककर बहुत से कटु अनुभव संचित कर लिए थे। माँ बेहाल हो गई थी। पिता अपनी जंग खाई खटारा साइकल लेकर यहाँ चले आए थे। तब मुझे बहुत शर्म महसूस हुई थी।

पहले माली ने उन्हें रोका था। पुष्पा के पिता ने उन्हें अनदेखा कर दिया था और पुष्पा की मम्मी ने एहसान जताते हुए कहा था- 'भेज दिया करें। नीता यहाँ सुख से दिन काट जाती है। आज रात तो यह पुष्पा के साथ ही रहेगी ।' मुझे बहुत गुस्सा आया था माँ पर। अगर थोड़ा सब्रकरती तो नौकर के हाथ मैं कहलाने ही वाली थी। पिताजी पर न ढंग के कपड़ े, न ढंग से सँवरे बाल। अपने चरमराते घर का प्रती क, यह साइकल यहाँ ले आए थे ।

रात को पुष्पा जल्दी सो गई थी। अच्छे बिस्तर तथा अन्य सुविधाओं के बावजूद मुझे नींद नहीं आ रही थी। साथ के कमरे से पुष्पा की मम्मी के धीरे-धीरे कराहने की आवा ज, मुझको उनके पास खींच ले गई थी। मैं उनका सिर दबाती रही। सिर दर्द के कारण क ी व्यथा-कथा उनकेमुँह से आप से आप जैसे बहने लगी थी- 'नीता देख तू बड़ी सयानी है। बड़ी प्यारी बच्ची है। किसी से कहेगी नहीं।

पुष्पा के डैडी हर रात बाहर होटलों और क्लबों में बिताते हैं। दिन में यदा-कदा ही घर का चक्कर लगाते हैं। मैं ठहरी सदा की बीमार ।

कभी कुछ हो जा ए, तो उन्हें तो मेरी अंतिम यात्रा में जाने तक की फुर्सत नहीं होगी। बस मुझे पैसे से मढ़कर बैठा दिया है। समझते हैं-
औरत के दिल-दिमाग नहीं होता। इन्हें क्या पता कि नारी सारी उम्र सबको ममता और प्रेम लुटाती रहती है और प्यार के दो मीठे बोलों के लिए ही तरसती है। मेरे न होने से भी उन्हें क्या फर्क पड़ता है। महेश और नरेश दोनों लड़के भी पिता के नक्शे-कदम प र, अभी से चलने शुरू हो गए हैं। महेश तो एक बार घर से पैसे लेकर उड़ ही चुका है। मुझ अकेली से तो यह घर नहीं संभलता। पैसा जिस राह आता ह ै, उसी राह बह जाता है ।'

' बेटी! घ र, दीवारें नहीं बनाती ं, आदमी बनाते है ं,' मेरी मनोभावनाएँ समझक र, माँ अक्सर कहा करती- 'उखड़ते हुए घरों को आदमी बचा सकते हैं। बने हुए घरों को आदमी उजाड़ देते हैं। दीवारों से बने घर क ो, अगर एक बार आग फूँक भी डाले तो सुरक्षित आदमी उसे फि र से बना लेते हैं ।' मैं सोचती यह मेरे साथ कैसा मजाक है। माँ अपनी कमियों पर पर्दा डालने के लिए कैसा शब्द-जाल रच रही है। हु आ, एक बार सुन लिय ा, मगर यहाँ तो बचपन से ही यही सब सुन-सुनकर कान पक गए हैं। जब आप अच्छी है ं, पिता भी नेक आदमी है ं, मैं भी आपकी नजरों में सुशील लड़की हू ँ, तो...तो फिर क्यों नहीं ह ै, पुष्पा के घर जैसा हमारा घ र? क्यों-क्यो ं?

आपने मुझे एम.ए. तक पढ़ा दिया। बी.एड. की ट्रेनिंग भी दिला दी। मैं जानती हू ँ, कम आय वाले अभिभावक मुश्किल से ही बच्चों को इतनी ऊँची शिक्षा दे पाते हैं।

मगर यहाँ बात बच्चों की नहीं थ ी, मात्र एक बच्ची की थी। माँ स्पष्ट स्वर में स्वीकारती है- 'तू हमारे घर आ ई, तो हमने और बच्चों की ख्वाहिश नहीं रखी। अपनी सीमाओं को हम भली प्रकार समझते थे। तेरे पिता हमेशा एक ही बात कहा करते थे- पूजा-भक्त ि, पुण्य-दान की लंबी-चौड़ी बाते ं, मैं नहीं जानता। समाज तथा देश की प्रगति में यदि हम योगदान देना चाहते हैं तो हमें अपनी औलाद को खूब योग्य बनाना होगा। उन्हें अपने जीवन स्तर से बहुत ऊँचा उठाना होगा और मेरे सामने सबसे बड़ा धर्म भी यही है ।'

एक सपन ा, एक अरमान सुंदर-सलौने घर का। मगर यह कैसी विडंबना है। जिस सुंदर घर का सपन ा, मैं बचपन से सँजोती आई हू ँ, ठीक उसी घर को आज मैंने ठुकरा दिया है।

छः महीने पहले मेरी नियुक्ति नेहरू बालिका उच्च माध्यमिक विद्यालय मे ं, सेकंड ग्रेड में हो गई थी। वहाँ पर मुझे जो स्टाफ मिल ा, न जाने क्यों चाहते हुए भी उसके साथ मैं एडजस्ट नहीं कर पाई। ज्यादातर लेडिज टीचर विवाहित ा, अच्छे खाते-पीते घर की हैं। बात-बात पर अपने को एक-दूसरे से ऊँचा प्रदर्शित करने की होड़ उनमें लगी रहती है। हर बात में उनका बनावटीप न, मुझे उनसे लगातार दूर भगाता रहा है।

ब स, थोड़ा समय मिलता तो नरेन्द्र के पास जा बैठती। उसकी शालीनता और सादेपन से मैं आहिस्ता-आहिस्ता प्रभावित होती गई। नरेन्द्र को भी उसी स्कूलमें एल.डी.सी. लगे बहुत समय नहीं हुआ था। एक-आध बार नरेन्द्र के घर भी हो आई हूँ। वैसा ही छोटा मामूली घ र, जैसा हमारा है। वैसे ही सीधे-साद े, किंतु विचारशील उसके माता-पिता हैं। उसकी बहन भी मुझे स्वभाव से बहुत अच्छी लगती है। एक दिन मैं नरेन्द्र के साथ स्कूल के बा द, चाय पीने किसी रेस्तराँ में चली गई थी। घर पहुँचने में कुछ देरी हो गई।

घर पर पहुँचने पर माँ ने बताया कि अभी-अभी पुष्पा तेरा इंतजार करती हुई चली गई है।

मैं जल्दी से मुँह-हाथ धोकर माँ-पिताजी के साथ चाय पीने बैठ जाती हूँ। वह मेरी ही प्रतीक्षा में बैठे हैं। फिर माँ ने बताया कि पुष्पा न े आते ही बड़े जोश से कहा- 'आंट ी, आप नीता को हमारे यहाँ भेज दें ।' फिर रुककर बोल ी, ' कोई एतराज तो नहीं ह ै, आंट ी?'

' कोई पार्टी-वार्टी है क्य ा? मुझे क्या एतराज हो सकता है। अब वह अपने पाँव पर खड़ी हो गई है...जहाँ चाहे आए-जाए ।' मैंने इतना कहा तो उसने मेरी बात काटते हुए कहा- 'बड़ी भोली हो आंटी। मैं तो नीता को हमेशा के लिए माँगने आई हूँ। मेरे भैया महेश के विवाह की बात चली तो मैंने मम्मी को नीता का नाम सुझाया। मुझे उम्मीद तो नहीं थ ी, परंतु थोड़ी बहस के बाद मम्मी मान गई।

भैया ने भी नीता को देख रखा है। उन्होंने भी इस संबंध में 'हा ँ' कर दी है ।'

' मैं पहले ही कह चुकी हूँ। हमारी नीता अपने पाँव पर खड़ी हो चुकी है। उसकी इच्छा के आगे हमें कोई आपत्ति नहीं होगी ।' उसको तो मैंने यह उत्तर देकर भेज दिया है। पर सोचती हू ँ, पुष्पा बेशक अच्छी लड़की है। तेरी बचपन की सहेली है। उनका घर भी ऊँचे नाम वाला है। मगर जहाँ तक सुनते है ं, उसके भाइयों और पिता की नैतिक प्रतिष्ठा ठीक नहीं ।' माँ इतना कहकर चुप हो जाती है।

एक बारगी मेरे सम्मुख पुष्पा का बंगला अपने तमाम हरे-भरे फूल-पत्तों और चमकीली दीवारों के साथ झूम उठता है। फिर पुष्पा के भाई महेश का चेहरा मेरे सामने आ ठहरता ह ै, जो अमूमन मेरी ओर वक्र मुस्कान फेंकता था तथा हमारी बातों में उल-जलूल बाते ं फँसाने कीकोशिश करता था। मेरी ओर से उपेक्षा पाक र, बड़ी रौबीली शान से अपने कीमती सूट को सहलाता हुआ चल देता था।

इसके बाद मेरे सम्मुख कॉलेज जीवन के अति प्रभावशाली अल्ट्रामाड्रेट छात्रों के चेहरे कौंधने लगते हैं। अविना श, कपिल और विनय ज ो मेरे सामीप्य के इच्छुक थे। सोचा थ ा, एक बार नहीं अनेक बार कि यदि इन्हें अपना सान्निध्य प्रदान करूँ तो य े, कृतार्थ हो उठेंगे। फिर ह ो सकता ह ै, मुझे मेरा मनोवांछित घर मिल जाए। इसके लिए थोड़ा नही ं, अतिसतर्क रहने की आवश्यकता होगी। मगर मुझसे यह सब नहीं हो पाया। शायद संस्कारगत विवशता थी। या हीन-भावना थी। या आए दिन सुनाई देने वाली वे गर्म खबरें थी ं, जिनके अनुसार अमीर लड़कों ने कई नई लड़कियों का शोषण किया था...

मुझे विचार-मग्न देखक र, पिताजी ने टोका- 'नीत ा, क्या बात ह ै? माँ को कोई जवाब नहीं दिया तुमन े?'

तब मैंने उन्हें नरेन्द्र के बारे में सबकुछ बता दिया कि साधारण घराने के हैं। पढ़े-लिख े, सुयोग्य भी हैं। अपने चरमराते घर को बनाने के लिए फिलहाल उन्होंने क्लर्की स्वीकार कर ली है। उनके घर वाले भी मुझे बेहद पसंद हैं। पर एक बात ह ै, नरेन्द्र का वेतन मुझसे काफ ी कम है।

इस पर पिताजी बड़े जोर से हँस े, ' इतनी सयानी बातें करते-करते तुमने भी कैसी बोदी बात कर डाली। गरीबी या कम आय को हम बुराइयों में तो शामिल नहीं कर सकते। दूसर ा, मेरी समझ में यह नहीं आता कि जब बहुत से आदमी अनपढ़ और फूहड़ स्त्री से निर्वाह करते हैं तो फिर क्या वजह है कि कोई लड़की अपने से कम वेतन पाने वाले लड़के से तालमेल न बैठा सके। मैं तो हर क्षेत्र और हर स्तर पर विचारों में समानता का हामी हूँ। हमारे दादा कहा करते थे- लड़की अपने से छोटे घर में अधिक प्रतिष्ठा पाती है ।'

मुझे लग ा, कितनी संक्षिप्त और सधी हुई बात कहक र, पिताजी ने मुझे कई उलझनों से निका ल, मेरा रास्ता कितना सुगम बना दिया है।
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