संस्कार

लघुकथा

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गिरीश पंड्या
आज उनके बेटे का परीक्षा-परिणाम घोषित होना था। उन्होंने बेटे से कहा- 'तुमने इस बार की परीक्षा में जितनी मेहनत की है, उसे देखते हुए तो यही लगता है, कि कम से कम अस्सी प्रतिशत अंक तो तुम्हें मिलेंगे ही, किंतु परिणाम जानने के बाद अतिउत्साह में आकर कहीं तुम अपने संस्कार मत भूल जाना।

' कैसे संस्कार पिताजी!' - बेटे ने उनसे पूछा।

' यही कि परिणाम घोषित होने के बाद अपने सारे शिक्षकों के पांव छूकर उनसे आशीर्वाद लेना। उनके आशीर्वाद के बिना इस परीक्षा तो क्या बल्कि जीवन की किसी भी परीक्षा में सफलता संभव नहीं।'- उन्होंने बेटे को संस्कार याद दिलाए।

परिणाम घोषित हुआ और बेटे को अस्सी प्रतिशत अंक नहीं मिल पाए। बेटे ने कहा - 'पिताजी! मैं अभी सारे शिक्षकों से आशीर्वाद लेकर आता हूं। आगामी परीक्षाओं में उच्च सफलता के लिए यह बहुत आवश्यक है।'

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उन्होंने बेटे को रोका - 'क्या खाक आशीर्वाद लोगे? अस्सी प्रतिशत अंक आते तो कुछ बात होती। सारे शिक्षकों के सामने जाकर अपनी प्रतिष्ठा गिरवाने का कोई औचित्य है भला?'

लौटते वक्त बेटे ने उनसे पूछा - 'पिताजी! अपनी झूठी प्रतिष्ठा बचाने के लिए संस्कारों को ताक पर रखा जा सकता है क्या?'

उनके पास बेटे के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था।

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