माधुर्य भाव की उपासिका : मीराबाई

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मीरा का जन्म जोधपुर राज्यान्तर्गत कुड़को गांव में सन्‌ १५०३ ई. के लगभग हुआ था। मेड़ता राज्य संस्थापक राव दूदाजी की वै पौत्री और रत्नसिंह की दुहिता थीं। सन्‌ १५१६ ई. के लगभग मीरा का विवाह चित्तौड़ के महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ।

इसी वर्ष रत्नसिंह के अग्रज राव बीरमदेव मेड़ता के शासक बन गए और उन्होंने अपनी भतीजी का बारह-तेरह वर्ष की अवस्था में विवाह कर दिया। राणा सांगा का जन्म सन्‌ १४८२ में हुआ, अतएव भोजराज का जन्म लगभग १४९८ ई. होना चाहिए। मीरा निश्चित ही उनसे कम अवस्था की थीं तथा उस समय बाल-विवाह की प्रथा प्रचलित हो गई थी।

बाल्यावस्था में मीरा की माता का देहांत हो गया था, अतएव उनका पालन-पोषण राव दूदाजी ने किया। राव दूदाजी वैष्णव भक्त थे। उनके साथ रहने से मीरा के संस्कार भी भक्तिमय हो गए।

सन्‌ १५२७ ई. में बाबर और सांगा के युद्ध में मीरा के पिता रत्नसिंह मारे गए और लगभग तभी श्वसुर की मृत्यु हुई। सांगा की मृत्यु के पश्चात भोजराज के छोटे भाई रत्नसिंह सिंहासनासीन हुए, अतएव निश्चित है कि अपने श्वसुर के जीवनकाल में ही मीरा विधवा हो गई थीं। सन्‌ १५३१ ई. में राणा रत्नसिंह की मृत्यु हुई और उनके सौतेले भाई विक्रमादित्य राणा बने।

लौकिक प्रेम की अल्प समय में ही इतिश्री होने पर मीरा ने परलौकिक प्रेम को अपनाया और कृष्ण भक्त हो गई। वे सत्संग, साधु-संत-दर्शन और कृष्ण-कीर्तन के आध्यात्मिक प्रवाह में पड़कर संसार को निस्सार समझने लगीं। उन्हें राणा विक्रमादित्य और मंत्री विजयवर्गीय ने अत्यधिक कष्ट दिए।

राणा ने अपनी बहन ऊदाबाई को भी मीरा को समझाने के लिए भेजा, पर कोई फल न हुआ। वे कुल मर्यादा को छोड़कर भक्त जीवन अपनाए रहीं। मीरा को स्त्री होने के कारण, चित्तौड़ के राजवंश की कुलवधू होने के कारण तथा अकाल में विधवा हो जाने के कारण अपने समाज तथा वातावरण से जितना विरोध सहना पड़ा उतना कदाचित ही किसी अन्य भक्त को सहना पड़ा हो। उन्होंने अपने काव्य में इस पारिवारिक संघर्ष के आत्मचरित-मूलक उल्लेख कई स्थानों पर किए हैं।

सन्‌ १५३३ ई. के आसपास मीरा को राव बीरमदेव ने मेड़ता बुला लिया। मीरा के चित्तौड़ त्याग के पश्चात सन्‌ १५३४ ई. में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया। विक्रमादित्य मारे गए तथा तेरह सहस्र महिलाओं ने जौहर किया। सन्‌ १५३८ ई. में जोधपुर के राव मालदेव ने बीरमदेव से मेड़ता छीन लिया।

वे भागकर अजमेर चले गए और मीरा ब्रज की तीर्थ यात्रा पर चल पड़ीं। सन्‌ १५३९ ई. में मीरा वृंदावन में रूप गोस्वामी से मिलीं। वे कुछ काल तक वहां रहकर सन्‌ १५४६ ई. के पूर्व ही कभी द्वारिका चली गईं। उन्हें निर्गुण पंथी संतों और कनफटे योगियों के सत्संग से ईश्वर भक्ति, संसार की अनित्यता तथा विरक्ति का अनुभव हुआ था।

वृंदावन के वातावरण में मीरा की कृष्णोपासना और वियोगानुभूति का विकास हुआ। वे विरह के पदों की रचना करती ही थीं। चैतन्य संप्रदाय की माधुर्योपासक और 'अष्टछाप' के लीला-गान से वे प्रभावित हुईं और भजन-कीर्तन उनका कार्य हो गया। वे गोपी भाव से कृष्ण की भक्ति करने लगीं और ललिता नामक गोपी का अवतार समझी गईं।

सन्‌ १५४३ ई. के पश्चात मीरा द्वारिका में रणछोड़ की मूर्ति के सन्मुख नृत्य-कीर्तन करने लगीं। सन्‌ १५४६ ई. में चित्तौड़ से कतिपय ब्राह्मण उन्हें बुलाने के लिए द्वारिका भेजे गए। कहते हैं कि मीरा रणछोड़ से आज्ञा लेने गईं और उन्हीं में अंतर्धान हो गईं। जान पड़ता है कि ब्राह्मणों ने अपनी मर्यादा बचाने के लिए यह कथा गढ़ी थी।

सन्‌ १५५४ ई. में मीरा के नाम से चित्तौड़ के मंदिर में गिरिधरलाल की मूर्ति स्थापित हुई। यह मीरा का स्मारक और उनके इष्टदेव का मंदिर दोनों था। गुजरात में मीरा की पर्याप्त प्रसिद्धि हुई। हित हरिवंश तथा हरिराम व्यास जैसे वैष्णव भी उनके प्रति श्रद्धा भाव व्यक्त करने लगे।

संभवतः १५७३ ई. के लगभग सत्तर वर्ष की अवस्था में मीरा का देहान्त हुआ। मीरा के पद गुजरात, राजस्थान, उत्तरप्रदेश और बंगाल में बहुत प्रसिद्ध हुए। वे लोकप्रिय कवयित्री थीं पर काव्य निर्माण उनका उद्देश्य नहीं था।

मीरा के व्यक्तित्व का जो सार था उसमें वाणी, गीत और काव्य अविभाज्य हो गए थे। उनका हृदय कविता का आदि-स्वरूप बन गया था और वाणी मात्र थी दरद-दीवानी की कसक।

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