स्वामी विवेकानंद का पत्र

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धर्म और विशेषकर हिन्दू धर्म के बारे में अज्ञान, अंधविश्वास तथा विकृत धारणाओं का निराकरण करना - स्वामी विवेकानंद के समक्ष यह कितना कठिन काम था! अत: उनके मन में यदाकदा निराशा का झोंका आ जाना स्वाभाविक ही था। एक ऐसी ही मन:स्थिति में स्वामी जी ने डेट्राएट से 15 मार्च 1894 ई. को शिकागो की हेल-बहनों के नाम एक पत्र में लिखा -

परंतु जब से मैं यहाँ आया हूँ, पता नहीं क्यों, मन बड़ा उदास रहता है - कारण मुझे मालूम नहीं। मैं व्याख्यान देते-देते और इस प्रकार के निरर्थक वाद से थक गया हूँ। सैकड़ों प्रकार के मानवीय पशुओं से मिलते-मिलते मेरा मन अशांत हो गया है। मैं तुम लोगों को अपनी रुचि की बात बतलाता हूँ कि मैं लिख नहीं सकता, मैं बोल नहीं सकता, परंतु मैं गंभीर विचार कर सकता हूँ और जब जोश में होता हूँ तो वाणी से स्फुलिंग निकाल सकता हूँ। परंतु यह होना चाहिए कुछ चुने हुए, केवल थोड़े से चुने हुए लोगों के सामने ही।

वे यदि चाहें तो मेरे विचारों को ले जाकर प्रसारित कर दें परंतु मैं यह नहीं कर सकता। यह तो श्रम का समुचित विभाजन है, एक ही आदमी सोचने में और अपने विचारों के प्रसार करनें मसफल नहीं हो सकता। मनुष्य को चिंतन के लिए मुक्त होना चाहिए, विशेषत: जबकि विचार आध्यात्मिक हो। मैं चाहता हूँ, वह यहाँ नहीं है और मैं इस तूफानी वातावरण को और अधिक काल तक सहन करने में असमर्थ हूँ।

कुछ शुद्ध सत्कप्रकृति के दर्पण इन शांतिपूर्ण शीतल, सुंदर, गहन, मर्मभेद ी, स्वाधीन, खोजपूर्ण विचारों को परावर्तिक कर, पुन: तब तक ग्रहण करते रहेंगे जब तक कि उन सभी के स्वरों के बीच सामंजस्य नहीं स्थापित हो जाता। फिर दूसरे लोग इसे यथासंभव बाह्य ज गत में प्रसारित करने का प्रयास करेंगे।

पूर्णता का मार्ग यह है कि स्वयं पूर्ण बनने का प्रयत्न करना तथा कुछ थोड़े से नर नारियों को पूर्ण बनाने का प्रयत्न करना। भला करने से मेरा यह त ात्पर्य है कि कुछ असधारण योग्यता के लोगों का विकास करूँ कि भैंस के आगे बीन बजाकर समय, स्वास्थ्य और शक्ति का अपव्यय करूँ। अब और व्याख्यान देने की मुझे परवाह नहीं। किसी व्यक्ति अथवा किसी श्रोतृमंडली की सनक के अनुसार मुझे परिचालित कराने का यह प्रयास बड़ा ही विरक्तिकर है।

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