गोपाचल का त्रिशलगिरि समूह

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गोपाचल दुर्ग तथा उसके चतुर्दिक गुहा मंदिरों में उत्कीर्ण अनगिनत तीर्थंकर प्रतिमाओं तथा ग्वालियर अंचल में फैली सांस्कृतिक विरासत के इतिवृत को जानने के प्रयासों में किए जा रहे शोधकार्य में एक नितांत भुलाया हुआ पक्ष सामने आया।

इसका उल्लेख पूर्व में किए गए सर्वेक्षणों, शोध प्रबंधों तथा ऐतिहासिक ग्रंथों में मिलता तो है किन्तु बहुत ही अल्प, मात्र 4-5 लाइनों में। इस पर कहीं भी विस्तारपूर्वक लिखा गया हो ऐसा अभी तक देखने में नहीं आया। सिवाय ऐसी टिप्पणियों के कि इन शैलाश्रयों और उनमें प्रतिमाओं का निर्माण तो हुआ किन्तु किन्हीं कारणवश इस समूह और उनमें बनाई जा रही प्रतिमाओं के निर्माण कार्य को बीच में ही रोक दिया और इससे मूर्तियों का निर्माण जैन शिल्प शास्त्रों के अनुरूप पूर्ण नहीं हुआ। कुछ शोधकर्ताओं ने एक स्थान पर लेटी हुई स्त्री की प्रतिमा को विवादास्पद बताया है।

किला परिधि के परकोटे के बाहर होने से पुरातत्व विभाग द्वारा इस समूह के प्रति उपेक्षा भाव रखने से एवं गुफाओं तक पहुँच मार्ग को भी ठीक नहीं करने से पर्यटकों और शोधकर्ताओं द्वारा भी अनदेखा किया गया।

कुछ पर्यटकों तथा शोधकर्ताओं द्वारा नीचे के मार्ग से महिला की लेटी हुई मूर्ति तथा उसके ही पास एक पुरुष और एक स्त्री की बैठी हुई आकृति की ओर आकर्षित होकर उन गुफाओं तक पहुँचने तथा अपने निष्कर्ष देने के उदाहरण नहीं के बराबर सामने आए हैं। फिर किसी एक-दो आकृति के विषय में अपनी राय तो प्रकट की, किन्तु इस संपूर्ण श्रृंखला को शास्त्र विधि सम्मत समझने का अभाव रहा, जबकि इस शैल श्रृंखला और गुहा मंदिरों का निर्माण एक योजनाबद्ध शास्त्र सम्मत परिकल्पना के आधार पर ही हुआ है।

यह संपूर्ण श्रृंखला 24वें एवं अंतिम तीर्थंकर महावीर को समर्पित है और इन शैल गुहा मंदिरों में क्रमबद्ध रूप में वर्द्धमान के पाँचों कल्याणक दर्शाए गए हैं।

उरवाई द्वार के परकोटे की दीवार से लगे इस समूह में प्रथम गुफा में चंद्रप्रभुस्वामी की सात फुट अवगाहना की खड़्‌गासन प्रतिमा है। काल प्रभाव से पाषाणों का क्षरण होने से प्रतिमा कई स्थानों से क्षतिग्रस्त हो गई है। यहाँ पर पास में दीवार पर कोई प्रशस्ति भी रही है, जिसका अत्यंत ही क्षरण हो जाने से उसे पढ़ना संभव नहीं हो सका।

इसी प्रतिमा के पास थोड़ा दक्षिण की ओर हटकर तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा है, किन्तु उसका भी बहुत बड़ा भाग क्षतिग्रस्त हुआ है। इनके पास ही प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की लगभग 13 फुट अवगाहना की खड़्‌गासन प्रतिमा तपस्या भाव में है। कंधों तक केशराशि आई हुई दर्शाई गई है, जो उनके केशीमुनि स्वरूप की सूचक है। लांछन का तो प्रश्न ही नहीं है।

इसके पश्चात वीरप्रभु के पंच कल्याणकों की श्रृंखला प्रारंभ होती है। इसमें प्रथम गुहा में तीर्थंकर की माता त्रिशला की लगभग आठ फुट लंबी दक्षिण की ओर मस्तक तथा पश्चिम की ओर मुख किए लेटी हुई निद्रामग्न प्रतिमा है। आसपास परिचारिकाएँ बैठी हैं। पृष्ठभाग की दीवार में तीर्थंकर की प्रतिमा है।

इसके पास ही संवत्‌ 1558 उत्कीर्ण किया हुआ है। मात्र एक लाइन में और टूटी-फूटी भाषा में होने से समय निर्धारित करने में भ्रम ही उत्पन्न करता है। यह पृथक से शोध का विषय है। प्रतिमा पर अत्यंत ही सुंदर ओपदार पॉलिश, पलंग की आकृति, अलंकार धारण किए हुए तथा मुखमंडल की आभा से प्रतिमा आकर्षक तथा मनोज्ञ है, जो बरबस ही आकर्षित करती है। उक्त रचना तीर्थंकर के गर्भकल्याण की है।

तत्पश्चात वीरप्रभु के जन्म कल्याणक की रचना उत्कीर्ण की हुई है, जिसमें कुबेर को रत्नों की वर्षा करते हुए तथा इंद्राणी को शिशु महावीर को पांडुकशिला पर ले जाते हुए प्रदर्शित किया गया है। सिंह पर आसीन इंद्राणी की भाव-विह्वल मुखमुद्रा है। यहाँ पर दो शिशु दर्शाए गए हैं, जिससे हमें ज्ञात होता है कि छद्म शिशु महावीर को त्रिशला माता के पास छोड़ दिया है, जो माता का पल्लू पकड़कर खड़ा है। इससे प्रतीत होता है कि वह वीरप्रभु के दर्शन करने की जिद कर रहा है।

कुबेर के पृष्ठभाग में पांडुकशिला पर भगवान का कलशाभिषेक दिखाया गया है। ऐसे ही इंद्राणी के पीछे कल्पवृक्ष (अथवा अशोक वृक्ष) और तीर्थंकर की रचना है। विभिन्न विद्वानों से चर्चा करने पर ये विचार भी सामने आए कि इस रचना में स्त्री, पुरुष रूप में माता त्रिशला और राजा सिद्धार्थ का चित्रण किया गया है, किन्तु पुरुष आकृति में दाहिने हाथ में रत्नकुंभ दिखाया गया है, जिससे यह माना जा सकता है कि यह दृश्य निश्चित ही जन्म कल्याणक का है।

इसके बाद की गुफा में जिनेश्वर की तपश्चर्या के दृश्य को अंकित किया गया है। इस खड़्‌गासन प्रतिमा के आसन को वैसे ही छोड़ दिया गया है। कोई लांछन अथवा सिंह पीठ आदि नहीं बनाए हैं। भामंडल के लिए बनाया हुआ गोल आकार और मस्तक के ऊपर छत्र के लिए छोड़ा गया पाषाण तो है, किन्तु उसे कोई आकार नहीं दिया है। इससे अनुमान होता है कि यह तपकल्याणक की अवस्था है।

इसके पास ही ध्यान अवस्था में सिंहासन पर महावीर विराजमान हैं। भामंडल ने भी आंशिक आकार लिया है, किन्तु अभी पूर्ण तीर्थंकर होने में विलंब है। अतः लांछन की उपस्थिति नहीं है। वैसे ही भामंडल भी पूर्ण विकसित नहीं है, जो ज्ञानकल्याणक की स्थिति को दर्शाते हैं।

इससे आगे की गुफा में पंचबालयति प्रतिमाओं को अंकित किया गया है। खड़्‌गासन मुद्रा में वीरप्रभु का अंकन है और आसपास पार्श्वनाथ, नेमिनाथ, विमलनाथ तथा वासुपूज्य स्वामी की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण की हुई हैं। मंगल कलश, समवशरण के साथ ही मान स्तंभ को भी दर्शाया है, जिससे मोक्ष कल्याणक के परिदृश्य को उपस्थित किया है।

अगली गुफा में महावीर स्वामी सहित चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमा है। इसमें वर्द्धमान को खड़्‌गासन तथा उनके पूर्व में समस्त तेईस तीर्थंकरों को पद्मासन मुद्रा में दिखाया है, जिसमें दोनों ओर सिद्धकूट के चिह्न अंकित हैं।

अंत में महावीर स्वामी की प्रतिमा, सिद्ध चक्र के ऊपर छत्र तथा उसके पास मालाधारी युगल दिखाए गए हैं। हमारी मान्यता है कि महावीर स्वामी के पंच कल्याणक को दर्शाता यह प्रतिमा समूह महावीर स्वामी को केंद्र में रखकर तैयार हुआ है। इस समूह का नाम ही त्रिशलागिरि समूह रखा जाना उचित होगा।

इसी प्रकार किले के विभिन्न स्थानों के शैल गुफा समूह को उस समूह की केंद्रीय प्रतिमा और जिस किसी तीर्थंकर के इर्द-गिर्द कल्पना को रेखांकित किया गया है, उन गुफा समूहों को उस नाम से ही पहचाना जाए। जैसे किला गेट (उत्तर-पूर्व) समूह को नेमगिरि के नाम से और घासमंडी की ओर वाले (ढोडापुर गेट के पास वाले) समूह का नाम उत्तर-पश्चिम के स्थान पर पद्मप्रभ के नाम से पहचाना जाए।

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