जैन आचार्यों के उपदेश

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वही आत्मा : वही परमात्म ा
सदाशिवः परब्रह्म सिद्धात्मा तथतेति च।
शब्दैस्तदुच्यतेऽन्वर्थादेकमेवैवमादिभिः॥

सदाशिव, परब्रह्म, सिद्ध, आत्मा, तथागत आदि शब्दों द्वारा उस एक ही परमात्मा का नाम लिया जाता है। शब्द-भेद होने पर भी अर्थ की दृष्टि से वह एक ही है।

सर्वान्देवान्नमस्यन्ति नैकं देवं समाश्रितः।
जितेन्द्रिया चितक्रोधा दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥

इंद्रियों तथा क्रोध पर विजय प्राप्त करने वाले जो गृहस्थ किसी एक देव को आश्रित न कर सब देवों को आदरपूर्वक नमस्कार करते हैं, वे संसाररूपी दुर्गों को पार कर जाते हैं।

मुक्त कौन होता है?
णिद्दंडो णिद्द्वंद्वों णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो।
णीरागो णिद्दोसो णिम्मूढो णिब्भयो अप्पा॥

जो मन, वचन और काया के दण्डों से रहित है, हर तरह के द्वंद्व से, संघर्ष से मुक्त है, जिसे किसी चीज की ममता नहीं, जो शरीर रहित है, जो किसी के सहारे नहीं रहता है, जिसमें किसी के प्रति राग नहीं है, द्वेष नहीं है, जिसमें मूढ़ता नहीं है, भय नहीं है, वही है-मुक्त आत्मा।

णवि दुक्खं णवि सुक्खं णवि पीडा णेव विज्जदे बाहा।
णवि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होइ णिव्वाणं॥

जहाँ दुःख नहीं है, सुख (इंद्रिय सुख) नहीं है, पीड़ा नहीं है, बाधा नहीं है, मरण नहीं है, जन्म नहीं है, वहीं निर्वाण है।

णवि इन्दियउवसग्गा णवि मोहो विम्हियो ण णिद्दा य।
ण य तिण्हा णेव छूहा तत्थेव य होइ णिव्वाणं॥

जहाँ इंद्रियाँ नहीं हैं, उपसर्ग नहीं हैं, मोह नहीं है, आश्चर्य नहीं है, निद्रा नहीं है, प्यास नहीं है, भूख नहीं है, वहीं निर्वाण है।

शील ही मुक्ति का साध न
सीलं तवो विसुद्धं दंसणसुद्धीय णाणसुद्धीय।
सीलं विसयाण अरी सीलं मोक्खस्स सोवाणं॥

शील ही विशुद्ध तप है। शील ही दर्शन-विशुद्धि है। शील ही ज्ञान-शुद्धि है। शील ही विषयों का शत्रु है। शील ही मोक्ष की सीढ़ी है।

जीवदया दम सच्चं अचोरियं बंभचेरसंतोसे।
समद्दंसणणाणे तओ य सीलस्स परिवारो॥

जीवों पर दया करना, इंद्रियों को वश में करना, सत्य बोलना, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, संतोष धारण करना, सम्यक्‌ दर्शन, ज्ञान और तप- ये सब शील के परिवार हैं।

सीयल मोटो सर्व वरत में, ते भाष्यो छै श्री भगवंत रे।
ज्यां समकित सहीत वरत पालीयो, त्यां कीयो संसारनों अंत रे॥

जिनेश्वर भगवान ने कहा है कि शील सबसे बड़ा व्रत है। जिन्होंने सम्यक्त्व के साथ शील व्रत को पाला, उन्होंने संसार का अंत कर डाला।

श्रावक का आचा र
मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणु व्रतपंचकम्‌।
अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमाः॥

श्रावण के आठ गुण हैं- 1. मद्य का, शराब का त्याग 2. मांस का त्याग 3. मधु का त्याग 4. हिंसा का त्याग 5. असत्य का त्याग 6. चोरी का त्याग 7. कुशील का अब्रह्मचर्य का त्याग तथा 8. परिग्रह का त्याग।

जूयं मज्जं मंसं वेसा पारद्धि-चोर-परयारं।
दुग्गइ गमणस्सेदाणि हेउभूदाणि पावाणी॥

श्रावकों को ये 7 व्यसन छोड़ देने चाहिए- 1. जुआ 2. शराब 3. मांस 4. वेश्या 5. शिकार 6. चोरी और 7. परस्त्री सेवन। इन पापों से दुर्गति होती है।

जु आ
ण गणेइ इट्ठमित्तं ण गुरुं ण य मायरं पियरं वा।
जूवंधो वुज्जाइं कुणइ अकज्जाइं बहुयाइं॥

जुआ खेलने से जिस आदमी की आँखें अंधी हो गई हैं, वह न इष्ट मित्रों को देखता है, न ही गुरु को। न वह माँ का आदर करता है, न पिता का। वह बहुत से पाप करता है।

अक्खेहि णरो रहिओ ण मुणइ सेसिंदएहिं वेएइ।
जूयंधो ण य केण वि जाणइ संपुण्णकरणो वि॥

अंधा आदमी आँखों से तो नहीं देख पाता, पर दूसरी इंद्रियों से देखता है। जुआरी की तो पाँचों फूट जाती हैं। किसी इंद्रिय से उसे कुछ नहीं दिखता।

शरा ब
मज्जेण णरो अवसो कुणेइ कम्माणि णिंदणिज्जाइं।
इहलोए परलोए अणुहवइ अणंतयं दुक्खं॥

शराब के अधीन होकर मनुष्य तरह-तरह के निन्दनीय कर्म करता है। उसे इस लोक में भी अनेक दुख भोगने पड़ते हैं, परलोक में भी।

जं किंचि तस्स दव्वं अजाणमाणस्स हिष्पइ परेहिं
लहिऊण किंचि सण्णं इदो तदो धावइ खलंतो॥

शराबी की जेब में जो कुछ धन होता है, उसे दूसरे लोग ही छीन ले जाते हैं। होश में आने पर उसे पाने के लिए वह इधर-उधर मारा-मारा फिरा करता है।

माँ स
मंसासणेण वड्ढइ दप्पो दप्पेण मझ्जमहिलसइ।
जूयं पि रमइ तो तं पि वण्णिए पाउणइ दोसे॥

मांस खाने से दर्प बढ़ता है, उन्माद बढ़ता है। दर्प से मनुष्य शराब पीना चाहता है। फिर वह जुआ खेलना चाहता है। इस प्रकार वह तमाम दोषों में फँस जाता है।

वेश्य ा
रत्तं णाऊण णरं सव्वस्सं हरइ वंचणसएहिं।
काऊण मुयइ पच्छा पुरिसं चम्मपरिट्ठिसेसं॥

पुरुष को अपने में आसक्त जानकर वेश्या सैकड़ों प्रकार से उसे ठगकर उसका सब कुछ हर लेती है। वह उसे हड्डियों का ढाँचा बनाकर छोड़ती है।

शिका र
णिच्चं पलायमाणो तिणचारी तह णिरवराहो वि।
कह णिग्घणो हणिज्जइ आरण्णणिवासिणो वि मए॥

जो वनवासी हिरन बेचारे डर के मारे सदा इधर-उधर दौड़ते रहते हैं, तिनके चरते हैं, कोई अपराध नहीं करते, उन्हें दयाहीन मनुष्य कैसे मारता है?

चोर ी
परदव्वहरणसीलो इह-परलोए असायबहुलाओ।
पाउणइ जायणाओ ण कयावि सुहं पलोएइ॥

जो आदमी पराया धन चुराता है, उसे इस लोक में भी दुख भोगना पड़ता है, परलोक में भी। उसे सुख कभी नहीं मिलता।

कुशी ल
दट्ठूण परकलत्तं णिब्बुद्धी जो करेइ अहिलासं।
ण यकिं पि तत्थ पावइ पावम एमेव अज्जेइ॥

पराई स्त्री को देखकर जो मूर्ख उसकी इच्छा करता है, उसके पल्ले पाप ही पड़ता है और कुछ नहीं।

भाव को शुद्ध कर ो
पढिएणवि किं कीरइ किंवा सुणिएण भावरहिएण।
भावो कारणभूदो सायारणयारभूदाणं॥

भाव से रहित होकर पढ़ने से क्या लाभ? भाव से रहित होकर सुनने से क्या लाभ? चाहे गृहस्थ हो चाहे त्यागी, सभी काकारण भाव ही है।

बाहिरसंगच्चाओ गिरिसरिकंदराइ आवासो।
सयलो णाणज्झयणो निरत्थओ भावरहियाणं॥

जिसमें भावना नहीं है, ऐसा आदमी धन-धान्य आदि परिग्रह को छोड़ दे, गुफा में जाकर रहे, नदी-तट पर जाकर रहे तो भी क्या? उसका ज्ञान, उसका अध्ययन बेकार है।

भावविसुद्धिणिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ।
बाहिरचाओ विहलो अब्भन्तरगंथजुत्तस्स॥

भाव को शुद्ध करने के लिए बाहरी परिग्रह का त्याग किया जाता है, पर जिसने भीतर से परिग्रह का त्याग कर रखा है, उसके लिए बाहरी परिग्रह छोड़ने का कोई अर्थ नहीं।

तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य।
णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुडं जाओ॥

तुष से उड़द की दाल अलग है, इसी तरह शरीर से आत्मा अलग है, ऐसा 'तुषमाष' रटते-रटते शिवभूति नाम के भावविशुद्ध महात्मा को शास्त्रज्ञान न रहने पर भी 'केवल ज्ञान' प्राप्त हो गया।

क्रोध जलाकर जलता ह ै
णासेदूण कसायं अग्गो णासदि सयं जघा पच्छा।
णासेदूण तध णरं णिरासवो णस्सदे कोधो।
जलाने लायक चीजों को जिस तरह आग जलाकर खुद भी नष्ट हो जाती है, उसी तरह क्रोध मनुष्य को नष्ट करके खुद भी नष्ट हो जाता है।

ण गुणे पेच्छदि अववददि गुणे जंपदि अजंपिदव्वं च।
रोसेण रुद्दहिदओ णारयसीलो गरो होदि॥
क्रोध आने पर मनुष्य जिस व्यक्ति पर क्रोध करता है, उसके गुणों की ओर ध्यान नहीं देता। वह उसके गुणों की निंदा करने लगता है। जो न कहना चाहिए सो कह डालता है। क्रोध से मनुष्य का हृदय रुद्र रूप धारण कर लेता है। वह मनुष्य होकर भी नारकी जैसा बन जाता है।

सुट्ठु वि पियो मुहुत्तेण होदि वेसा जणस्स कोधेण।
पधिदो वि जसो णस्सदि कुद्धस्स अकज्जकरणेण॥
क्रोध के कारण मनुष्य का परम प्यारा प्रेमी भी पलभर में उसका शत्रु बन जाता है। मनुष्य की प्रसिद्धि भी उसके क्रोध के कारण नष्ट हो जाती है।

ममता का त्याग कर ो
अहं ममेति मंत्रोऽयं, मोहस्य जगदान्ध्यकृत्‌।
अयमेव हि नयपूर्वः प्रतिमंत्रोऽपि मोहजित्‌॥
' मैं', 'मेरा' इस मोहरूपी मंत्र ने सारे संसार को अंधा बना रखा है, परन्तु 'यह मेरा नहीं है' यह वाक्य मोह को जीतने का प्रतिमंत्र भी है।

दान देना आवश्य क
आहारोसह-सत्थाभयभेओ जं चउव्विहं दाणं।
तं बुच्चइ दायव्वं णिद्दिट्ठमुवासयज्झयणे॥
उपासकाध्ययन में कहा है कि चार प्रकार के दान हैं- भोजन, औषधि, शास्त्र और अभय। ये दान अवश्य देने चाहिए।

अइबुड्ढ-बाल-मूयंध बहिर-देसंतरीय-रोडाणं।
जहजोग्गं दायव्वं करुणादाणत्ति भणिऊण॥
बहुत बूढ़ा हो, बालक हो, गूंगा हो, अंधा हो, बहरा हो, परदेशी हो, दरिद्र हो, 'यह करुणादान है' ऐसा मानकर उसे यथायोग्य दान देना चाहिए।

उपवास-वाहि-परिसम-किलेस-परिपीडयं मुणेऊण।
पत्थं सरीरजोग्गं भेसजदाणं पि दायव्वं॥
उपवास, बीमारी, मेहनत और क्लेश से जो पीड़ित हो, उस आदमी को पथ्य और शरीर के योग्य औषधि दान देना चाहिए।

जं कीरइ परिरक्खा णिच्चं मरणभयभीरुजीणाणं।
तं जाण अभयदाणं सिहामणि सव्वदाणाणं॥
मौत से डरे हुए जीवों की रक्षा करना है, अभयदान। यह दान सब दानों का शिरोमणि है।

पात्रे दीनादिवर्गे च दानं विधिवदिष्यते।
पोष्यवर्गाविरोधेन न विरुद्धं स्वतश्च यत्‌॥
अपने आश्रय में रहने वाले नौकरों आदि का विरोध न करो। सुपात्र, गरीब, अनाथ आदि को विधिपूर्वक दान दो। दीन और अनाथों के साथ अपने नौकरों को भी दान देना चाहिए।

सबसे मेरी मैत्री ह ो
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं
क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्‌।
माध्यस्थ्यभावं विपरीवृत्तौ
सदा ममात्मा विदधातु देव।
हे देव! मैं चाहता हूँ कि यह मेरी आत्मा सदा प्राणीमात्र के प्रति मैत्री का भाव रखे। गुणियों को देखकर मुझे प्रसन्नता हो। दुखियों को देखकर मेरे मन में करुणा जगे। विपरीत वृत्ति वालों के प्रति मेरे मन में उदासीनता रहे।
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