पूजा पद्धति

जिन-दर्शन चैत्य-वंदन विधि

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दर्शन क्यों?

हम जैन हैं। हमारा लक्ष्य परमात्मा जिनेश्वर भगवान के सच्चे एवं श्रद्धावान अनुयायी बनने का होना चाहिए क्योंकि हमारा अंतिम ध्येय तो आत्मा को वीतराग बनाना ही है। इसके लिए जिनेश्वर परमात्मा की पहचान करनी आवश्यक होगी। प्रतिदिन परमात्मा जिनेश्वर के दर्शन, उनकी स्तवना, पूजन, अर्चन वगैरह करना भी जरूरी है और फिर, परमात्मा के प्रति यदि हमारे भीतर में प्रेम है... प्रीति है...। जहाँ प्यार हो, स्नेह हो... वहाँ दर्शन के बगैर, उन्हें देखे बगैर कैसे रहा जा सकता है? वर्तमान समय में साक्षात्‌ जिन का मिलना तो संभव नहीं है... अतः जिनेश्वर भगवंत की मूर्ति-प्रतिमा, जो हमें वीतराग बनने का संदेश देती है... उसका दर्शन-वंदन-स्तवन करना ही चाहिए।

हालाँकि हम प्रतिदिन दर्शन करने के लिए तो मंदिर में जाते हैं... पर अक्सर समुचित विधि का ज्ञान नहीं होने के कारण हमारा दर्शन परमात्मा के प्रति आकर्षण पैदा नहीं करता है।

दर्शन कैसे?
आइए, हम सही और सरल विधि सीख लें... सही तरीका जान लें... दर्शन करने का ताकि परमात्मा के दर्शन करके हमारी आत्मा आनंद की अनुभूति में डूब सके। हमारा मन, हमारा पूरा अस्तित्व प्रसन्नता के सागर में गोते लगा सके।

घर से निकलें तब-

जब हम प्रभु दर्शन करने के लिए घर से चलते हैं... तब हमें कुछ सावधानियाँ रखनी चाहिए-
हमारा शरीर स्वच्छ एवं स्वस्थ होना चाहिए।
शरीर में आलस या सुस्ती नहीं होना चाहिए।
हमारे कपड़े-वस्त्र भी साथ-सुथरे व ढंग से पहने हुए होने चाहिए।

मंदिर जाते वक्त चमड़े की वस्तु न तो पहनें, न ही अपने पास रखें। पैरों में चप्पल या बूट नहीं पहनना अच्छा है... पहनना जरूरी हो तो चमड़े के तो कतई नहीं पहनना चाहिए।

चलते-चलते मौन रहकर मन-ही-मन परमात्मा के रूप-स्वरूप का चिंतन करना चाहिए।
परमात्मा की अचिंत्य शक्ति के बारे में सोचना चाहिए। परमात्मा के हम पर जो उपकार हैं... उसके बारे में विचार करना चाहिए। मन-ही-मन परमात्मा की प्रार्थना या गीत भी गा सकते हैं।
दिल और दिमाग को परमात्मा के दिव्य प्रेम की अनुभूति में डुबो दें।
चलते-चलते जैसे ही मंदिर का शिखर एवं शिखर पर लहराती ऊँची ध्वजा दिखाई दे कि तुरंत हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर, 'नमो जिणाणं' कहते हुए प्रणाम करना चाहिए।

मंदिर के द्वार पर पहुँचने पर पैरों में से जूते निकालने के साथ ही मन में से सारे सांसारिक विचार भी निकाल दें। हाथ-पैर गंदे हों, तो पानी से पैर धोकर ही मंदिर प्रवेश करें।

मंदिर में प्रवेश करते ही तीन बार 'निसीही', 'निसीही', 'निसीही', बोलें। 'निसीही' बोलकर हम वादा करते हैं कि मंदिर के भीतर सांसारिक विचार, बातें या प्रवृत्ति नहीं करेंगे।

सबसे पहले केसर-चंदन रखने के कमरे में जाकर ललाट पर दो भौंहों के बीच बराबर 'आज्ञाचक्र' के बिन्दु पर बादाम के आकार का, दीये की लौ-ज्योति जैसा तिलक करें। (बहनों के लिए तिलक की जगह बिंदी करने का रिवाज है।) तिलक कर के हम परमात्मा की आज्ञा को सर पर चढ़ाते हैं एवं परमात्मा के दर्शन द्वारा हम हमारे ज्ञानबिन्दु (आज्ञाचक्र) को उद्घाटित करने का संकल्प करते हैं।

इसके बाद सामने ही यदि परमात्मा की प्रतिमा दिखाई देती हो तो हाथ जोड़कर-मस्तक पर अंजलि रचाकर नमन करते हुए 'नमो जिणाणं' कहें।

वहाँ से सीधे प्रदक्षिणा-फेरी (यदि मंदिरजी में हो तो) लगाने के लिए भगवान की दाहिनी बाजू से प्रारंभ करें। प्रदक्षिणा तीन बार दी जाती है- चूँकि हमें प्रभु से तीन बातें चाहिए- सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र। श्रद्धा, ज्ञान व संयम! जिसके इर्दगिर्द हम चक्कर काटते हैं... एक दिन हम भी वैसे बन जाते हैं... वैसे बनने की अभीप्सा जगती है।

प्रदक्षिणा देते समय बातें नहीं करना चाहिए, वरन्‌ सुंदर-सरस प्रार्थनाएँ गानी चाहिए। मधुर स्वरों में 'रत्नाकर पच्चीशी' के कुछ श्लोक या 'भक्तामर-स्तोत्र' के श्लोक गाने से मन-भाव विभोर हो उठता है। प्रदक्षिणा के दौरान जहाँ कहीं भी परमात्मा की प्रतिमा दिखाई दे, मस्तक झुकाकर प्रणाम करें। इस तरह तीन प्रदक्षिणा दें।

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