॥ मंगलाष्टक स्तोत्र भाषा ॥

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संघसहित श्रीकुंदकुंद गुरु, वंदनहेत गये गिरनार।
वाद पर्‌यो तहं संशयमतिसों, साक्षी वदी अंबिकाकार॥
' सत्य पंथ निरग्रंथ दिगंबर,' कही सुरी तहँ प्रगट पुकार।
सो गुरु देव वसौ उर मेरे, विघनहरण मंगल करतार॥

स्वामी समंतभद्र मुनिवरसों, शिवकोटी हठ कियो अपार।
वंदन करो शंभुपिंडी को, तब गुरु रच्यो स्वयंभू सार॥
वंदन करत पिंडिका फाटी, प्रगट भये जिनचंद्र उदार॥ सो.

श्री अकलंकदेव मुनिवरसों, वाद रच्यौ जहँ बौद्ध विचार।
तारादेवी घट में थापी, पटके ओट करत उच्चार॥
जीत्यो स्यादवादबल मुनिवर, बौद्धबोध तारा-मदटार॥ सो.

श्रीमत विद्यानंदि जबै, श्रीदेवागमथुति सुनी सुधार।
अर्थहेत पहुँच्यो जिन मंदिर, मिल्यो अर्थ तहँ सुखदातार॥
तब व्रत परमदिगंबर को धर, परमत को कीनों परिहार॥ सो.

श्रीमत मानतुंग मुुनिवर पर भूप कोप जब कियौ गंवार।
बंद कियो तालों में तबही, भक्तामर गुरु रच्यौ उदार॥
चक्रेश्वरी प्रगट तब ह्वै कै, बंधनकाट कियो जयकार॥ सो.

श्रीमत वादिराज मुनिवर सौं, कह्यो कुष्टि भूपति जिहँ बार।
श्रावक सेठ कह्यो तिहं अवसर, मेरे गुरु कंचन तनधार॥
तबही एकीभाव रच्यो गुरु, तन सुवरणदुति भयौ अपार॥ सो.

श्रीमत कुमुदचंद्र मुनिवरसों, वाद परयो जहँ सभा मंझार।
तब ही श्रीकल्यानधाम थुति, श्री गुरु रचना रची अपार॥
तब प्रतिमा श्री पार्श्वनाथ की, प्रगट भई त्रिभुवन जयकार॥ सो.

श्रीमत अभयचंद्र गुरुसों जब, दिल्लीपति इमि कही पुकार।
कै तुम मोहि दिखावहु अतिशय, कै पकरौ मेरो मत सार॥
तबगुरु प्रगट अलौकिक अतिशय, तुरत हर्‌यो ताको मदभार।
सो गुरु देव वसौ उर मेरे, विघनहरण मंगल करतार॥

दोहा :
विघन हरण मंगल करण, वांछित फलदातार।
' वृंदावन' अष्टक रच्यो, करौ कंठ सुखकार॥

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