एक था बूढ़ा पाला - बड़ा समझदार और अनुभवी! उसका नौजवान बेटा जाड़ा एकदम नासमझ और बड़बोला था, एक दिन उसने पिता से डींग मारी - 'मैं जिसे चाहूँ, मिनटों में ठंड से अकड़ा सकता हूँ।' ' ऐसा समझना कोरा भ्रम है बेटा'' बूढ़े पाला ने समझाया। मैं अभी प्रमाण देता हूँ। नौजवान जाड़ा ने उत्तेजित होकर कहा और चारों तरफ निगाह दौड़ाई... सामने एक मोटा-ताजा सेठ दिखा गरम कपड़ों और कीमती शाल से लदा-फदा! जाड़े ने उसे जा घेरा। सेठ देखते-देखते ठंड से काँपने लगा। देख लीजिए पिताजी! जाड़े ने शेखी बघारी 'पहलवान जैसे सेठ पर मैंने कैसी बुरी गुजार दी। अब तो मान गए न मेरी बात?'
नहीं, बूढ़ा पाला हँसा, फिर बैलगाड़ी लेकर जंगल की तरफ जाते एक फटेहाल किसान को दिखाकर बोला - 'बेटा, तेरी बात मैं तब मान सकता हूँ, जब तू उसे छका दे।' जाड़े ने बाप की तरफ देखा और बड़े घमंड से कहा - 'अभी चित करता हूँ। वह तुरंत उड़कर किसान के पास पहुँच गया और उसे दबोचना शुरू किया। उसने कमजोर बैल के जूए से कंधा भिड़ाया और बैलगाड़ी खींचने में मदद देने लगा।
जाड़ा उसकी कनपटियाँ, हाथ-पैर, और गर्दन पर चुटकियाँ काटता रहा, लेकिन किसान पर असर नहीं पड़ रहा था। क्योंकि गाड़ी में जोर लगाने से उसके शरीर से गरमी छिटक रही थी। जाड़ा हैरान था - कितना मजबूत है यह पिद्दी भर का आदमी! मगर उसने हिम्मत न हारी, किसान के पीछे पड़ा रहा। मन में सोच रहा था, यहाँ न सही, जंगल में तो अकड़ा ही दूँगा। कितनी देर झेल पाएगा मुझे? जंगल पहुँच कर किसान ने बैलगाड़ी रोक दी।
अब वह कुल्हाड़ी उठाकर सूखी लकड़ियाँ काटने लगा। जाड़ा जैसे-जैसे उस पर हमला करता, उसकी कुल्हाड़ी चलाने की गति बढ़ती गई। देखते-देखते उसने गाडी भर लकडी काट डाली। देह में ऐसी गर्मी आई कि पसीना चूने लगा। उसने सिर की पगड़ी उतारकर जमीन पर रख दी।
जाड़े का कोई वश न चला, तो पगड़ी में जा बैठा। लकड़ी लाद चुकने के बाद किसान ने पगड़ी उठाई। उसे बरफ सा ठंडा पाकर वह गरम हथेलियों से मसल-मसल कर पगड़ी को गरमाने लगा। जाड़ा ज्यादा समय तक किसान के हाथों की रगड़ न झेल पाया। वह पिटा सा मुँह लेकर पिता के पास लौट आया। बूढ़ा पाला उसकी दशा देखकर हँस पड़ा। बोला 'बेटा! आरामतलब लोगों को तुम छका सकते हो। मगर मेहनती लोगों के आगे तुम्हारी तो क्या, किसी भी मुसीबत की नहीं चल पाती।'