प्रकृति या विकासः ग्रीनलैंड के तेल भंडार

Webdunia
बुधवार, 30 जून 2010 (21:21 IST)
DW
उत्तरी ध्रुव में स्थित ग्रीनलैंड की बर्फ के परतों की नीचे तेल के भंडार हैं। विश्व के तापमान में बढ़ोतरी के बाद बर्फ कम हो गई है और तेल कंपनियाँ इस मौके का फायदा उठाना चाहती हैं, लेकिन क्या प्रकृति के लिए यह ठीक होगा?

मैक्सिको की खाड़ी में हुई तेल दुर्घटना के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बाराक ओबामा ने गहरे सागर में ड्रिलिंग करने के लिए समयबद्ध प्रतिबंध की घोषणा की है, लेकिन ग्रीनलैंड में ऐसा नहीं है। ग्रीनलैंड दुनिया का सबसे बड़ा द्वीप है। उत्तरी ध्रुव के बहुत पास स्थित यह द्वीप डैनमार्क का एक स्वायत्त प्रदेश हैं।

आर्कटिक यानी उत्तरी ध्रुव के इस प्रदेश में बर्फ के नीचे तेल के विशाल भंडार छिपे हुए हैं। अनुमान है कि 50 अरब टन तेल वहाँ छिपा हुआ हैं। यह एक बहुत ही बड़ी मात्रा है क्योंकि पिछले साल पूरी दुनिया में तेल भंडारों वाले सभी देशों ने मिलकर सिर्फ करीब 380 करोड़ टन के बराबार तेल निकाला।

ग्रीनलैंड में रहने वाले आदिवासियों के सबसे लोकप्रिय ओझा आंगांगाक का मानना है कि अगर किसी तरह की दुर्घटना होती है तो उत्तरी ध्रुव की बहुत ही नाजुक पर्यावरण प्रणाली को गंभीर नुकसान पहुँचेगा, जिसका असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा। ग्रीनलैंड के लोग आर्थिक विकास चाहते हैं। यह बिलकुल स्पष्ट है कि हमारे यहाँ दुनिया के सबसे बड़े गैस और तेल भंडार हैं। ड्रिलिंग करने के लिए एक जहाज अभी से उस इलाके में पहुँच चुका है। कई जगह तो वह 3 किलोमीटर की गहराई तक ड्रिलिंग करना चाहता है।

ब्रिटेन की तेल कंपनी कैर्न ऐनर्जी कनाडा और ग्रीनलैंड को अलग करने वाले समुद्र के आसपास के इलाके में टेस्ट ड्रिलिंग करना चाहती हैं। इस इलाके को संयुक्त राष्ट्र की ओर से विश्व प्राकृतिक विरासत का दर्जा दिया गया है। अगर वह सफल रहा तो ग्रीनलैंड के लोग अपने जीवन स्तर को सुधारने की उम्मीद कर सकते हैं। वैसे ग्रीनलैंड दुनिया के सबसे कम आबादी वाले इलाकों में गिना जाता है।

हालाँकि मैक्सिको की खाड़ी में तेल हादसे को देखते हुए और यह समझने के बाद कि दुर्घटना से शायद स्थायी रूप से नुकसान हो सकता है, ड्रिलिंग करने के लिए कड़े नियम लागू किए गए हैं। आज तक विशेषज्ञों को पता नहीं है कि बर्फ के नीचे से तेल निकालने के क्या असर हो सकते हैं।

आंगांगाक कहते हैं कि सभी कोशिशों के बाद भी पूरी तरह से सुरक्षित होना संभव नहीं है, 'यह संभव है कि सब ठीक रहे। यह भी हो सकता है कि सब बेकार हो जाए। कभी भी, कुछ भी हो सकता है। मेरी भी नहीं समझ में आता है कि क्या किया जाए। क्या हमें ड़्रिलिंग की अनुमति नहीं देनी चाहिए? लेकिन तब हम डेनमार्क पर हमेशा के लिए निर्भर रहेंगे। क्या हमें यूरोपीय संघ से मदद मिल सकती है? क्या मदद मिलने के बाद हमें ड़्रिलिंग करने की जरूरत ही नहीं पडेगी। मुझे ऐसा नहीं लगता। इस विरोधाभास में हम फँसे हुए हैं।'

जलवायु परिवर्तन की वजह से उत्तरी ध्रुव में बर्फ की परत पतली हो गई है। अब जहाज भी वहाँ तक पहुँच सकते हैं। ओझा आंगांगाक का कहना है कि इसकी वजह से भी पर्यावरण प्रणाली को बहुत नुकसान पहुँच रहा है। वे कहते हैं कि गर्मी के दिनों में टैंकर इस मार्ग का इसतेमाल एशिया तक पहुँचने के लिए करने लगे हैं। वे इस बात पर चिंता व्यक्त करते हैं कि बहुत सारे जहाजों की तकनीक इस बर्फीले इलाके को पार करने लायक नहीं है। मैं तो कहूँगा कि क्रूज, कंटेनर जहाज और तेल टैंकरों में से किसी को भी वहाँ जाने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। अगर वे किसी आईसबर्ग यानी हिमशैल से टकराते हैं, तब टाईटैनिक वाली बेफकूफी को दोहराया जाएगा और एक बार फिर बहुत सारे लोगों की मौत होगी।

वैसे जहाज बर्फ की पतली परतों का फायदा उठा रहे हैं और साईबेरिया से तेल और गैस कनाडा जैसे देशों तक पहुँचा रहे हैं। यह तरीका पाइपलाइन से तेल पहुँचाने के मुकाबले काफी सस्ता है, लेकिन 1989 में अमेरिकी प्रांत आलास्का में हुई तेल टैंकर दुर्घटना का नुकसान आज भी प्रकृति को झेलना पड़ रहा है। अगर उत्तरी ध्रुव वाले इलाके में किसी तरह की दुर्घटना होती है, तो फायदा तो दूर की बात, आर्थिक लिहाज से भी बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है।

- प्रिया एसेलबॉर्न

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