सूखे की चपेट में चेरापूँजी

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- प्रभाकर मणि तिवारी (कोलकाता से)

पूर्वोत्तर का स्कॉटलैंड कहे जाने वाले मेघालय स्थित चेरापूँजी अपनी भारी बारिश की वजह से ही गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज था, लेकिन अब यह इलाका जलवायु परिवर्तन की चपेट में है।

बारिश और गरजते बादल ही सदियों से चेरापूँजी की सबसे बड़ी धरोहर रहे हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन की वजह से यह धरोहर अब धीरे-धीरे उसके हाथों से निकलती जा रही है। दुनिया में सबसे ज्यादा बारिश का रिकार्ड बनाने वाला चेरापूँजी अब खुद अपनी प्यास बुझाने में भी नाकाम है। कोई दो दशक पहले जब पहली बार चेरापूँजी पहुँचा था तब भारी बारिश के मारे कुछ भी देख नहीं सका था। लेकिन बरसों बाद दूसरी यात्रा में यह एक भीगा रेगिस्तान ही लगा। यहाँ बारिश साल-दर-साल कम होती जा रही है।

पाँच-छह साल पहले तक यहाँ सालाना लगभग 1100 मिमी बारिश होती थी। अब यह आँकड़ा मुश्किल से छह सौ तक पहुँचता है। यानी बारिश पहले के मुकाबले लगभग आधी हो गई है। इलाके में बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई के आरोप लगते रहे हैं। आखिर चेरापूँजी का चेहरा क्यों बदल रहा है?

मौसम विभाग के एक अधिकारी डी.के.संगमा बताते हैं कि लगातार भारी बारिश की वजह से इलाके में लाइम स्टोन यानी चूना पत्थर की चट्टानें नंगी हो गई हैं। उन पर कोई पौधा तो उग नहीं सकता। नतीजतन इलाके से हरियाली तेजी से खत्म हो रही है।

बांग्लादेश की सीमा से लगे चेरापूँजी में अब हर साल जाड़े और गर्मियों में पानी की भारी किल्लत हो जाती है। यह विडंबना ही है कि स्थानीय लोगों को अब पीने का पानी खरीदना पड़ता है। एक बाल्टी पानी के लिए छह से सात रुपए देने पड़ते हैं।

लंबे अरसे तक यह गाँव चेरापूँजी के नाम से जाना जाता रहा, लेकिन बीते साल इसका नाम बदलकर सोहरा कर दिया गया है। पहले इसका नाम ही सोहरा था। नाम इस उम्मीद में बदला कि शायद इससे किस्मत भी बदल जाए, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है।

चेरापूँजी में बादल और बरसात ही पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहे हैं। इसका प्राकृतिक सौंदर्य पर्यटकों को घंटों बाँधे रखने में सक्षम है, लेकिन अब बादल घटते जा रहे हैं और शायद पर्यटक भी। वैसे संगमा का दावा है कि पर्यटक अब भी चेरापूँजी आते हैं।

वे कहते हैं कि शिलांग आने वाले पर्यटक चेरापूँजी जरूर आते हैं। उनकी बात सही हो सकती है। पर्यटक आते जरूर हैं, लेकिन उनको निराशा ही हाथ लगती है। क्या कोपेनहेगेन सम्मेलन से इस सूखते कस्बे की प्यास बुझाने की कोई राह निकलेगी। इस सवाल का जवाब तो बाद में मिलेगा, लेकिन तब तक शायद यह कस्बा पानी की एक-एक बूंद का मोहताज हो जाएगा।

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