स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी जी का संघर्ष

गांधी जी ने बजाया था सत्याग्रह का बिगुल

Webdunia
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दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद भारतवासियों को उनके अधिकार दिलाने के लिए गांधी जी नेशनल इण्डियन कांग्रेस की स्थापना की। पहली बार सत्याग्रह के शस्त्र का प्रयोग किया और विजय भी पाई। इस प्रकार सन्‌ 1914-15 में गांधी जब दक्षिण अफ्रीका से वापिस भारत लौटे, तब तक इन विचारों और जीवन-व्यवहारों में आमूल-चूल परिवर्तन आ चुका था।

भारत लौटकर कुछ दिन गांधी जी देश का भ्रमण कर वास्तविक स्थिति का जायजा लेते रहे। फिर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसी संस्था को पूर्ण स्वतंत्रता का लक्ष्य देकर संघर्ष में कूद पड़े। क्योंकि प्रथम विश्वयुद्ध में वचन देकर भी अंग्रेज सरकार ने भारतीयों के प्रति अपने रवैये में कोई परिवर्तन नहीं किया था, इससे गांधी जी और भी चिढ़ गए और अंग्रेजी कानूनों का बहिष्कार और सत्याग्रह का बिगुल बजा दिया।

भारतवासियों के मानवाधिकारों का हनन करने वाले रोलट एक्ट का स्थान-स्थान पर विरोध-बहिष्कार होने लगा। सन्‌ 1919 में जलियां-वाला बाग में हो रही विरोध-सभा पर हुए अत्याचार ने गांधी जी की अंतरात्मा को हिलाकर रख दिया। सो अब ये समूचे स्वतंत्रता आंदोलन की बागडोर सम्हाल खुलम-खुल्ला संघर्ष में कूद पड़े।

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इनका संकेत पाते ही सारे देश में विरोधी आंदोलनों की एक आंधी सी छा गई। अंग्रेज सरकार की लाठी-गोलियां भी अंधाधुंध बरसने लगीं। जेलें सत्याग्रहियों से भर उठीं। गांधीजी को भी जेल में डाल दिया गया।

बिहार की नील सत्याग्रह, डाण्डी यात्रा या नमक सत्याग्रह, खेड़ा का किसान सत्याग्रह आदि गांधी जी के जीवन के प्रमुख सत्याग्रह हैं। इन्हें कई बार महीने-महीने भर का उपवास भी करना पड़ा। अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए इन्होंने नवजीवन और यंग इण्डिया जैसे पत्र भी प्रकाशित किए।

विदेशी-बहिष्कार और विदेशी माल का दाह, मद्य निषेध के लिए धरने का आयोजन, अछूतोद्धार, स्वदेशी प्रचार के लिए चर्खे और खादी को महत्व देना, सर्वधर्म-समन्वय और विशेषकर हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए प्रचार इनके द्वारा आरंभ किए गए अन्य प्रमुख सामाजिक सुधारात्मक कार्य माने गए हैं। इस प्रकार के स्वतंत्रता दिलाने वाले प्रयासों के लिए अक्सर बीच-बीच में इन्हें जेलयात्रा भी करनी पड़तीं।

सन्‌ 1931 में इग्लैंड में संपन्न गोलमेज कान्फ्रेस में भाग लेने के लिए गांधी जी वहां गए, पर जब इनकी इच्छा के विरुद्ध हरिजनों को निर्वाचन का विशेषाधिकार हिन्दुओं से अलग करके दे दिया, तो भारत लौटकर गांधी जी ने पुनः आंदोलन आरंभ कर दिया। बंदी बनाए जाने पर जब ये अनशन करने लगे, तो सारा देश क्षुब्ध हो उठा। फलतः ब्रिटिश सरकार को गांधी जी के मतानुसार हरिजनों का पृथक निर्वाचनाधिकार का हठ छोड़ना पड़ा।

सन्‌ 1942 में बंबई कांग्रेस के अवसर पर इनके द्वारा अंग्रेजों को दी गई चेतावनी 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' और भारतवासियों को 'करो या मरो' की दी गई ललकार का जो भीषण परिणाम निकला, उसे निहार अंग्रेज न केवल घबरा गए, बल्कि बोरिया बिस्तर बांधकर इस देश से चले जाने के लिए बाध्य हो गए। फलतः 15 अगस्त 1947 के दिन भारत को स्वतंत्र कर अंग्रेज इंग्लैंड लौट गए।

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