कर्मों का फल

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जमियं जगई पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पन्ति पाणिणो।
सममेव कडेहिं गाहई, णो तस्सा मुच्चेज्जऽपुट्ठय ॥
महावीरजी कहते हैं इस धरती पर जितने भी प्राणी हैं, वे सब अपने-अपने संचित कर्मों के कारण ही संसार में चक्कर लगाया करते हैं। अपने किए कर्मों के अनुसार वे भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेते हैं। किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना प्राणी का छुटकारा नहीं होता।

जह मिडलेवालित्तं गरुयं तुबं अहो वयइ एवं।
आसव-कय-कम्म-गुरु, जीवा वच्चंति अहरगइं ॥
जिस तरह तुम्बी पर मिट्टी की तहें जमाने से वह भारी हो जाती है और डूबने लगती है, उसी तरह हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार तथा मूर्च्छा, मोह आदि आस्रवरूप कर्म करने से आत्मा पर कर्मरूप मिट्टी की तहें जम जाती हैं और वह भारी बनकर अधोगति को प्राप्त हो जाती है।

तं चेव तव्विमुक्कं जलोवरि ठाइ जायलहुभावं।
जह तह कम्मविमुक्का लोयग्गपइट्ठिया होंति ॥
यदि तुम्बी के ऊपर की मिट्टी की तहें हटा दी जाएँ तो वह हलकी होने के कारण पानी पर आ जाती है और तैरने लगती है। वैसे ही यह आत्मा भी जब कर्म बंधनों से सर्वथा मुक्त हो जाती है, तब ऊपर की गति प्राप्त करके लोकाग्र भाग पर पहुँच जाती है और वहाँ स्थिर हो जाती है।
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