क्षमा की शुरूआत है मैत्री

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- धरमचंद जै न

इतिहास के पृष्ठों को यदि हम उलटकर देखें तो प ाए ँगे कि दुनिया के बड़े से बड़े युद्ध का अंतिम हल संधि रहा है। हर झगड़े का अंत समझौता ही रहता है। संधि या समझौता अर्थात एक पक्ष द्वारा क्षमा धारण करना।

क्षमा, माफी या अ ँगरेजी में सॉरी इस दो अक्षरों वाले छोटे से शब्द में इतनी ताकत है कि बड़े से बड़े पत्थर हृदय को मोम बना देता है। क्षमा का प्रतीक सफेद ध्वज पल में बड़े-बड़े योद्धाओं के अस्त्र को रोक देता है। इसीलिए बाह्य शत्रुओं को जीतने वाले को वीर कहा जाता है और क्षमा धारण करने वाला महावीर कहलाया।

दुनिया का प्रत्येक प्राणी सुख-चैन से जीना चाहता है, भले ही वह पशु-पक्षी हो या मानव। हमें चैन से जीने के लिए औरों के सुख का पहले ध्यान रखना होगा। यही महावीर का 'जीयो और जीने दो' का सिद्धांत है। यदि हम प्राणी के प्रति मैत्री भाव दिखाएंगे तो निश्चित मानिए वह हमें नुकसान नहीं पहुंचाएगा। मैत्री भाव से क्षमा गुण का अपने आप विकास होगा। क्षमा का महत्व दुनिया के प्रत्येक धर्म में अनादिकाल से प्रतिस्थापित है।

प्राचीन काल में राजा मेघरथ द्वारा कबूतर के बदले उसके बराबर स्वयं का मांस देना, जटायु को घायल देख श्रीराम का करुणा भाव, गौमाता को कामधेनु के रूप में मानना यह है हमारे मैत्री भाव का उत्कृष्ट उदाहरण किंतु आज हमारी आत्मा, हमारी इंसानियत, हमारी धार्मिकता, हमारी करुणा कहां गई? कहां खो गया हमारा पूर्वजों का दिया संस्कार, ऋषि-मुनि, तीर्थंकरों व पीर पैगम्बर की पावन धरती को क्या हो गया, जो अपने को खून से रंगना चाहती है? बैर की आग को केवल क्षमा व मैत्री भाव के पानी की धार ही बुझा सकती है।

आज हम इस पावन दिवस पर प्रतिज्ञा करें कि : 'मैत्रीभाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे/ देख दीन-दुखियों को मेरे उर से करुणा स्रोत बहे।' टेलीपैथी भी कहती है कि भावों का प्रभाव सामने वाले को भी होता है। यदि हम पशु-पक्षी, मानव को हमारा मित्र मानेंगे तो निश्चित ही वे भी हमसे मित्रवत ही रहेंगे।

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