॥ कर्म ॥

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कर्म के बारे में महावीर स्वामी के उपदेश-

नाणस्सावरणिज्जं, दंसणावरणं तहा।
वेयणिज्जं तहा मोहं, आउकम्मं तहेव य॥
नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य।
एवमेयाइं, कम्माइं, अट्ठेव उ समासओ ॥

महावीर स्वामी ने कर्मों की संख्या आठ बताई है। ये कर्म हैं-

1. ज्ञानावरणीय कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा के ज्ञान-गुण पर परदा पड़ जाए। जैसे, सूर्य का बादल में ढँक जाना।

2. दर्शनावरणीय कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा की दर्शन शक्ति पर परदा पड़ जाए। जैसे, चपरासी बड़े साहब से मिलने पर रोक लगा दे।

3. वेदनीय कर्म- वह कर्म जिससे आत्मा को साताका- सुख का और असाताका-दुःख का अनुभव हो। जैसे, गुड़भरा हँसिया- मीठा भी, काटने वाला भी।

4. मोहनीय कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा के श्रद्धा और चारित्र गुणों पर परदा पड़ जाता है। जैसे, शराब पीकर मनुष्य नहीं समझ पाता कि वह क्या कर रहा है।

5. आयु कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा को एक शरीर में नियत समय तक रहना पड़े। जैसे, कैदी को जेल में।

6. नाम कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा मूर्त होकर शुभ और अशुभ शरीर धारण करे। जैसे, चित्रकार की रंग-बिरंगी तसवीरें।

7. गोत्र कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा को ऊँची-नीची अवस्था मिले। जैसे कुम्हार के छोटे-बड़े बर्तन।

8. अन्तराय कर्म- वह कर्म, जिससे आत्मा की लब्धि में विघ्न पड़े। जैसे, राजा का भण्डारी। बिना उसकी मर्जी के राजा की आज्ञा से भी काम नहीं बनता।

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