॥ चोरी मत करो ॥

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चोरी के बारे में महावीर स्वामी के उपदेश-

... अदत्तादाणं हरदहमरणभयकलुसतासणपर
संतिमऽभेज्ज लोभमूलं...
अकित्ति करणं अणज्जं...
साहुगरहणिज्जं पियजणमित्तजणभेद
विप्पीतिकारकं रागदोसबहुलं ॥
अदत्तादान (चोरी का धन) दूसरों के हृदय को जलाने वाला होता है। मरणभय, पाप, कष्ट और पराए धन की लिप्सा का कारण है और लोभ की जड़ है। वह अपयश देने वाला है। करने लायक काम नहीं है। साधु लोग उसकी निंदा करते हैं। वह अपने प्रेमियों और मित्रों के बीच भेद डालने वाला है। विपत्ति का कारण है। तरह-तरह के राग-द्वेष बढ़ाने वाला है।

दंतसोहणमाइस्स अदत्तस्स विवज्जणं।
अणवज्जेसणिज्जस्स गिण्हणा अवि दुक्करं ॥
महावीर स्वामी कहते हैं यदि मालिक न दे तो दाँत कुरेदने की सींक भी नहीं लेनी चाहिए। संयमी को केवल उतनी ही चीजें लेनी चाहिए, जो जरूरी हों और जिनमें किसी तरह का दोष न हो। ये दोनों बातें कठिन हैं।

चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं।
दंतसोहणमितं वि उग्गहंसि अजाइया॥
तं अप्पणा न गिण्हंति नो वि गिण्हावए परं।
अन्नं वा गिण्हमाणं वि नाणुजाणंति संजया ॥
महावीर स्वामी का कहना है कि जो लोग संयमी हैं, वे मालिक से बिना पूछे न तो कोई सचित्त चीज लेते हैं, न अचित्त। फिर वह चीज कम हो चाहे ज्यादा। दाँत कुरेदने की सींक ही क्यों न हो, वे न तो खुद लेते हैं, न दूसरे से लिवाते हैं और न किसी दूसरे को उसके लिए अनुमति देते हैं।

रूवे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठि।
अतुट्ठि दोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं ॥
मनोहर रूप ग्रहण करने वाला जीव कभी अघाता ही नहीं। उसकी आसक्ति बढ़ती ही जाती है। उसे कभी तृप्ति होती ही नहीं। इस अतृप्ति के दोष से दुःखी होकर उसे दूसरे की सुंदर चीजों का लोभ सताने लगता है और वह चोरी कर बैठता है।

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