॥ ब्राह्मण और भिक्षु ॥

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सच्चे ब्राह्मण और भिक्षु के बारे में महावीर स्वामी के उपदेश-

तसपाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे।
जो न हिंसइ तिविहेण तं वयं बूम माहणं ॥
महावीरजी कहते हैं कि जो इस बात को जानता है कि कौन प्राणी त्रस है, कौन स्थावर है और मन, वचन और काया से किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता, उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं।

कोहा व जइ व हासा लोहा व जइ व भया।
मुस न वयई जो उ तं वयं बूम माहणं ॥
महावीर स्वामी का कहना है कि जो न तो गुस्से में आकर झूठ बोलता है, न हँसी-मजाक में पड़कर, न लोभ में आकर झूठ बोलता है, न भय में पड़कर, उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं।

न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो।
न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो ॥
सिर मुँडा लेने से ही कोई श्रमण नहीं बन जाता। ओंकार का जप कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता। केवल जंगल में जाकर बस जाने से ही कोई मुनि नहीं बन जाता। वल्कल वस्त्र पहन लेने से ही कोई तपस्वी नहीं बन जाता।

समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो।
नाणेण उ मुणी होइ तवेणं होइ तावसो ॥
समता पालने से श्रवण बनता है। ब्रह्मचर्य पालने से ब्राह्मण। चिंतन मन से, ज्ञान से मुनि बनता है। तपस्या करने से तपस्वी!

सव्वेहिं भूएहिं दया णुकंपी खंतिक्खमे संजयबंभयारी।
सावज्जजोगं परिवज्जयंतो चरेज्ज भिक्खू सुसमाहिइन्दिए ॥
महावीरजी कहते हैं कि भिक्षु सब प्राणियों पर दया करे। कठोर वचनों को सहन करे। संयमी रहे। ब्रह्मचारी रहे। इंद्रियों को वश में रखे। पापों से बचता हुआ विचरे।

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