इंद्र कुमार गुजराल : विदेश नीति को दिया नया आयाम

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भारतीय राजनीति में अपने सरल स्वभाव और विनम्रता के लिए अलग पहचान बनाने वाले इंद्र कुमार गुजराल को देश दुनिया में ‘गुजराल सिद्धांत’ के रूप में विदेश नीति को नया आयाम देने के लिए जाना जाता है और इसकी छाप प्रधानमंत्री के रूप में उनके छोटे कार्यकाल के दौरान भी मिली।

भारत के विदेशमंत्री के रूप में अपने दो कार्यकाल में गुजराल ने पड़ोसी देशों के साथ भारत के संबंधों को व्यापक आधार प्रदान करने की दिशा में महत्वपूर्ण पहल की, जिसे भारत में ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी सराहा गया।

अपने लंबे राजनीतिक जीवन में वे कई मंत्रालयों में महत्वपूर्ण पदों पर रहे और दिवंगत इंदिरा गांधी ने उन्हें उस दौर की महाशक्ति रहे सोवियत संघ में भारत का राजदूत बनाया था। जब 1997 में जनता दल के नेतृत्व में छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों के सहयोग से संयुक्त मोर्चे की सरकार बनी तो गुजराल का नाम आश्चर्यजनक रूप से प्रधानमंत्री पद के लिए सामने आया।

प्रधानमंत्री पद के लिए मुलायमसिंह यादव सहित कई दावेदारों के बीच जंग थी, लेकिन सीताराम केसरी के नेतृत्व में कांग्रेस द्वारा एचडी देवगौड़ा से समर्थन वापस लेने के बाद गुजराल के नाम पर आम सहमति बनी थी। हालांकि यह परीक्षण भी नाकाम रहा और देश को 10 महीनों में चुनावों का सामना करना पड़ा।

चार दिसंबर 1919 को अब पाकिस्तान के झेलम में जन्मे गुजराल स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार से थे और उन्होंने अपने युवा उम्र में आजादी की लड़ाई में सक्रिय रूप से भाग लिया। वे 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जेल भी गए।

लाहौर के डीएवी कॉलेज, हैली कॉलेज ऑफ कॉमर्स और फोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज में शिक्षा ग्रहण करने वाले गुजराल छात्र राजनीति में भी सक्रिय रहे।

अगस्त 1947 में देश के विभाजन के समय गुजराल भारत आ गए। गुजराल 1958 में नई दिल्ली नगर निगम समिति के उपाध्यक्ष बने। इसके बाद वे औपचारिक रूप से कांग्रेस में शामिल हुए और छह साल बाद इंदिरा गांधी ने उन्हें अप्रैल 1964 में राज्यसभा का टिकट दिया। यह राष्ट्रीय राजनीति और कूटनीति में उनकी लंबी पारी की शुरुआत थी।

गुजराल इंदिरा गांधी को 1966 में प्रधानमंत्री बनाने में मदद करने वाले समूह में शामिल थे। उन्होंने संचार, संसदीय मामले और आवासीय जैसे कई मंत्रालय में महत्वपूर्ण पद संभाले।

देश में जब 25 जून 1975 को आपातकाल लगा था, गुजराल देश के सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे। कुछ मतभेद के बाद उन्हें इस मंत्रालय से हटा दिया गया और इंदिरा गांधी ने उन्हें राजदूत बनाकर मॉस्को भेजा। मोरारजी देसाई और चरणसिंह के प्रधानमंत्री कार्यकाल में भी वे उस पद पर बने रहे।

मॉस्को में अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद गुजराल भारत लौटे। 1980 दशक के मध्य में कांग्रेस छोड़ने वाले गुजराल ने जनता पार्टी में शामिल होकर राजनीति में फिर से प्रवेश किया।

वर्ष 1989 के चुनावों में गुजराल पंजाब की जालंधर संसदीय सीट से चुनाव जीते। वे पहले वीपी सिंह (दिसंबर 1989 में) और फिर देवगौडा (जून 1996 में) के कार्यकाल में विदेश मंत्री बने। उन्होंने इस दौरान निकटवर्ती देशों के साथ मैत्री के पांच सिद्धांत प्रतिपादित किए, जिन्हें गुजराल डॉक्ट्रीन के नाम से जाना गया।

वे 1964 से 1974 के बीच दो बार राज्यसभा सदस्य, 1989 से 1991 तक लोकसभा सदस्य रहे। लालू प्रसाद की मदद से वे 1992 में राज्यसभा सदस्य बने। वे 1998 में जालंधर में अकाली दल की मदद से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर जीत के साथ फिर से लोकसभा में लौटे।

वर्ष 1997 में उत्तरप्रदेश में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना उनकी सरकार का विवादित फैसला रहा। हालांकि तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने इस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया और इसे फिर से विचार के लिए सरकार के पास भेजा।

उनकी पत्नी शीला का 2011 में निधन हो गया था। शीला कवयित्री और लेखिका थीं। उनके भाई सतीश गुजराल प्रमुख चित्रकार और वास्तुविद थे। गुजराल के दो बेटे हैं, जिनमें से एक नरेश गुजराल राज्यसभा सांसद और अकाली दल के नेता हैं। (एजेंसियां)

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