एक अनार, सौ बीमार!

भाषा
लोकसभा चुनाव होने में साल भर से ज्यादा वक्त बाकी है, लेकिन इस बार प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों की भरमार है।

स्वतंत्र भारत में पहले कभी भी इतने तादाद में नेता नहीं दिखे थे, जिन्हें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से देश के इस शीर्ष पद के लिए पेश किया जाता हो।

भाजपा ने आधिकारिक रूप से विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी को इस पद के लिए अपना उम्मीदवार तय किया है और विपक्षी गठबंधन के अन्य सहयोगी दलों से भी उनके नाम के प्रति समर्थन जताया गया है।

बहरहाल यह दीगर मामला है कि लौह पुरुष अपनी आत्मकथा 'माई कंट्री माई लाइफ' को प्रोत्साहन देने के क्रम में विवादों में उलझ गए हैं।

संप्रग के एक अहम घटक राकांपा ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह की लोकतांत्रिक साख की प्रशंसा कर उनको पेश करने की कोशिश की, लेकिन मराठा नेता शरद पवार की राकांपा के इस विचार पर कांग्रेस ने चुप्पी ही साधे रखी।

समय-समय पर कांग्रेसजन गाँधी-नेहरू परिवार के उत्तराधिकारी 37 वर्षीय राहुल गाँधी को पार्टी के भावी नेता और संभावित प्रधानमंत्री के बतौर पेश करते रहे हैं। राहुल को कुछ ही माह पहले अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का महासचिव बनाया गया है।

कांग्रेस राहुल को अपने धोनी के रूप में पेश कर रही है। धोनी ने ट्‍वेंटी-20 टूर्नामेंट में भारत को विजय दिलाया था। उधर पिछले साल उत्तरप्रदेश में अपनी जीत से उत्साहित बसपा भी अपनी नेता मायावती को देश की अगली प्रधानमंत्री के रूप में पेश करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है।

अभी तक साथ कार्रवाई की शुरुआत करने में नाकाम रहने के बावजूद तीसरे मोर्चे ने भी यह संकेत देना शुरू किया है कि इस दौड़ में उसके अध्यक्ष एवं उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायमसिंह यादव पीछे नहीं हैं।

संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील गठबंधन के नाम से पहले जाने जाने वाले इस गैर कांग्रेस गैर भाजपा मोर्चे में चंद्रबाबू नायडू सरीखे नेता भी हैं, जिनका नाम पहले इस शीर्ष पद के लिए आ चुका है।

चूँकि मनमोहन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के निणर्य से प्रधानमंत्री बने हैं और वे इस पद पर मजबूती से विराजमान हैं, कांगेस इस मुद्दे पर कुछ बोलना नहीं चाहती। अखिल भारतीय कांग्रेस समिति इस प्रश्न पर कहती है कि चुनाव के समय इस पर फैसला किया जाएगा।

राकांपा महासचिव डीपी त्रिपाठी ने कहा है कि प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारों को पेश करने के पार्टियों के कदम स्वागतयोग्य है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र पढ़ा चुके त्रिपाठी का कहना है कि देश फिलहाल गठबंधन युग से गुजर रहा है और यह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को पेश करना राजनीतिक बहुवाद का नतीजा है।

अतीत में मनमोहनसिंह ने भी इस सवाल को दरकिनार कर दिया था। संयोगवश मनमोहन सरकार के कामकाज को एक अनूठे श्रम विभाजन से अंजाम दे रहे हैं, जो अतीत में भारतीय राजनीति में कभी नहीं देखा गया।

राजनीतिक प्रबंधन का काम आम तौर पर सोनिया गाँधी देखती हैं, जो सत्तारूढ़ संप्रग की अध्यक्ष भी हैं।

इधर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के समर्थक और विरोधी उन्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश कर रहे हैं, जिसे गुजरात में ब्रांड मोदी की सफलता के बाद प्रधानमंत्री बनना चाहिए। खुद आडवाणी भी संकेत दे चुके हैं कि मोदी उनके उत्तराधिकारी होंगे।

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी तरफ से कह चुके हैं कि वह प्रधानमंत्री पद के मुद्दे में फँसना नहीं चाहते। उनके अनुसार मीडिया ने शरद पवार और चंद्रबाबू नायडू पर शीर्ष पद के लिए भविष्य का नेता के रूप में ध्यान केंद्रित कर उनका राजनीतिक करियर चौपट कर दिया।

पवार की पार्टी राकांपा कहती है कि पवार में प्रधानमंत्री बनने के सभी गुण हैं, लेकिन त्रिपाठी कहते हैं हम छोटी पार्टी हैं और हम अपनी सीमाएँ जानते हैं। पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की दिसंबर 2006 में लखनऊ में हुई बैठक में भाजपा अध्यक्ष राजनाथसिंह ने दुल्हनिया (सत्ता) को उत्तरप्रदेश से दिल्ली ले जाने की बात कही थी।

अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता और रेलमंत्री लालू प्रसाद प्रधानमंत्री बनने की अपनी इच्छा का संकेत पहले ही दे चुके हैं। लेकिन उनका कहना है कि फिलहाल उनका लक्ष्य अगले लोकसभा चुनाव में अच्छी खासी सीटें जीतना है।

राजद कांग्रेस नीत संप्रग सरकार में फिलहाल दूसरा सबसे बड़ा घटक दल है, लेकिन बिहार में राजनीतिक परिदृश्य बदल रहा है। मौजूदा लोकसभा में अन्नाद्रमुक का एक भी सांसद नहीं है।

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