देवनागरी के 'अक्षर ऋषि' का देहावसान

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जिस शख्सियत की वजह से आज से हिन्दी और मराठी जैसी भाषाओं को 'इंटरने ट' पर एक अलग पहचान मिली, देश और दुनिया में फैले करोड़ों हिन्दी और मराठी भाषी आज अगर कम्प्यूटर पर बैठकर इंटरनेट के माध्यम से एक-दूसरे से अपनी भाषा में संपर्क कर पा रहे हैं तो इसमें सबसे बड़ा योगदान आरके जोशी का था।

हिन्दी और मराठी को इंटरनेट के माध्यम से समृद्ध करने वाले मंगल फॉन्ट के जनक 'अक्षर ऋष ि' आरके जोशी का दु:खद निधन इस देश के भाषाई और तकनीकी आंदोलन की बहुत बड़ी क्षति है। वे अपने मित्रों और सहयोगियों में 'रकृ' के नाम से जाने जाते थे।

वे वैदिक संस्कृत लिपि को मान्यता देने संबंधी एक प्रस्ताव लेकर अमेरिका गए थे और वहाँ 5 फरवरी 2008 को सेन फ्रांसिस्को एअरपोर्ट पर ही उनका निधन हो गया।

21 वीं सदी में कम्प्यूटर का कोई पर्याय नहीं है और अगर कम्प्यूटर पर भारतीय भाषाएँ नहीं तो इस नए युग में यह भाषाएँ ही नहीं रहेंगी, इस बात को सबसे पहले महसूस किया था आरके जोशी ने। रकृजी (आरके जोशी) जीवन की अंतिम साँस चलने तक भारतीय भाषाओं के फॉन्ट्‍स विकसित करने में समर्पित थे।

वे वैदिक संस्कृत के प्रमाणीकरण का मुद्दा लेकर अमेरिका गए थे, मगर दुर्भाग्य से विमानतल पर ही उनका निधन हो गया। वर्षों से वेदों और उपनिषदों के अध्ययन के बाद उन्होंने यह महसूस किया कि वैदिक संस्कृत लिपि का भी उपयोग कम्प्यूटर पर होना चाहिए और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 'वैदिक संस्कृत' का प्रमाणीकरण होना चाहिए।

उन्होंने गहन अध्ययन करने के बाद सी-डैक को एक प्रस्ताव दिया था, उसी को बाद में भारत सरकार ने यूनिकोड को प्रस्तुत किया, लेकिन भेजते समय पूरी तरह सावधानी नहीं बरतने के कारण वह प्रस्ताव वैसे ही धूल खाता रहा। इसी बीच जब एक अमेरिकन कंपनी ने 'वैदिक संस्कृत' को लेकर प्रस्ताव प्रस्तुत किया तो वे बेचैन हो गए।

उन्होंने दोबारा सरकार और सरकारी अधिकारियों को इस बात का अहसास दिलाया कि यह कितनी शर्मनाक स्थिति है कि 'वैदिक संस्कृत' को लेकर अमेरिकी कंपनी काम कर रही है और हम अपने ही प्रस्ताव पर कुंडली मारे बैठे हैं। जोशी ने सी-डैक के अपने सहयोगियों के सात नया प्रस्ताव तैयार किया था और इसी को लेकर वे अमेरिका गए थे, लेकिन विधाता को शायद यह मंजूर नहीं था।

जोशी को बचपन से ही शब्दों के साथ लगाव था। कोल्हापुर की एक दु‍कान के नामपट्ट से उनका अक्षरों के साथ नाता जुडा़। उसके बाद अक्षर और रकृ कभी भी अलग नहीं हुए।

1954 में उन्होंने मुंबई के जेजे स्कूल मे प्रवेश लिया। उस समय जेजे में टाइपोग्राफी नाम का विषय ही नहीं था। अभ्यास के लिए फ्रेंच और अन्य अक्षर रचनाओं का किया जाता था। 1963 में वे जेजे में अतिथि प्राध्यापक के रूप मे नियुक्त हुए। उन्होंने यहाँ अक्षरांकन (कैलिग्राफी) विषय प्रारंभ किया।

अक्षरों के इस पागलपन की वजह से ही रकृ ने शिलालेखों के अध्ययन का संकल्प लिया। शिलालेखों को खोजना, उनको पढ़ने और समझने के लिए एक ओर पुरातत्व वैज्ञानिकों के साथ रहने लगे तो दूसरी ओर व्यावसायिक क्षेत्र में डिजाइनें बनाकर नाम कमाया।

नेरोलॅक, यह है रंगों की कंपनी, उसके लिए भी श्वेत और श्याम (ब्लेक एंड व्हाइट) जमाने में रंगों के विज्ञापन को उन्होंने अक्षरांकन और कविता के माध्यम से लोकप्रिय किया। नेरोलॅक को लोकप्रिय बनाने में रकृ बहुत बड़ा योगदान था। कविता के क्षेत्र में भी रकृ ने बहुत प्रयोग किए।

हैंगर नामक कविता में पहली बार मराठी में हैंगर से लटके हुए शब्दों के रूप में कविता पढ़ने को मिली। रकृजी ने मूर्त कविता को नई जान देने का प्रयत्न किया। "शब्द केवल शब्द, स्वरूप क्यों नहीं?" यह उनके मन का प्रश्न था जिसके उत्तर के लिए ही मराठी कविता को नया स्वरूप मिला। यहाँ तक ही रकृ रूकेंगे कैसे?

उन्होंने हैपनिंग नामक कार्यक्रम से कला सीधा जनमानस तक पहुँचाने का प्रयास किया। जेजे से हुतात्मा चौक के बीच कहीं भी कैनवास फैलाकर अक्षरांकन शुरू कर देते थे और आने जाने वालों में कौतुहल जगाकर उनको अक्षरकुल में शामिल कर लेते थे।

यह हैपनिंग केवल मौज नहीं था। उनका मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति में कला छुपी होती है और उसको सामने लाने के लिए उसे बस एक मौका दिया जाना चाहिए।

इसीलिए सभी लिपियों का अध्ययन करके उन्होंने 'देशनागरी' नामक लिपि विकसित की। जब वे उल्का में थे, तब उन्होंने अक्षरांकन के लिए स्कॉलरशिप शुरू की। यह स्कॉलरशिप पाने वाले पहले विद्यार्थी अच्युत पालव थे। आज अच्युत अक्षरांकन के क्षेत्र में देश भर में कलात्मक प्रयोग करते हुए अपने इस कार्य की गौरवगाथा की 25वीं जयंती मना रहे हैं।

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