शास्त्रीय नृत्य के पर्याय हैं बिरजू महाराज

(चार फरवरी को जन्मदिन पर विशेष)

Webdunia
रविवार, 3 फ़रवरी 2008 (18:58 IST)
ताल और घुंघुरूओं के तालमेल से कथक नृत्य पेश करना तो एक आम बात है लेकिन जब ताल की थापों और घुंघुरूओं की रूंझन को महारास के माधुर्य में तब्दील करने की बात हो तो बरबस ही दिमाग में एक ही नाम आता है बिरजू महाराज जिनका सारा जीवन ही इस कला को क्लासिक की ऊँचाइयों तक ले जाने में लगा है।

महाराज कल 70 के हो जाएँगे लेकिन पिता अच्छन महाराज की गोद में महज तीन साल की उम्र में ही उनकी प्रतिभा दिखने लगी थी। इसी को देखते हुए पिता ने बचपन से ही अपने इस यशस्वी पुत्र को कला दीक्षा देनी शुरू कर दी।

इसी का सुपरिणाम था कि पिता की मृत्यु के बाद जब परिवार पर विपत आई तो उन्हें कला के सहारे लक्ष्मी मिलती रहीं। उनके सिर से पिता का साया उस समय उठा जब वह महज नौ साल के थे। 13 साल की उम्र में बिरजू महाराज को दिल्ली में संगीत भारती में कथक नृत्य की शिक्षा देने का आमंत्रण मिला और उन्होंने अपने काम को बखूबी अंजाम दिया।

बिरजू महाराज का जन्म चार फरवरी 1938 को लखनऊ के कालका बिंदादीन घराने में हुआ। पहले उनका नाम दुख हरण था जो बाद में बदल कर बृजमोहन नाथ मिश्रा हुआ, लेकिन कला जगत अब उन्हें बिरजू के नाम से जानता है। कथक का प्रशिक्षण उन्हें अपने पिता अच्छन महाराज के बाद चाचा शंभू महाराज तथा लच्छू महाराज से मिला।

कृष्ण से जुड़ा यह नृत्य बिरजू महाराज को विरासत में मिला। उनके पूर्वज ईश्वरी प्रसाद मिश्र इलाहाबाद के हंडिया तहसील के रहने वाले थे और उन्हें कथक के पहले ज्ञात शिक्षक के रूप में जाना जाता है। इसी खानदान के ठाकुर प्रसाद नवाब वाजिद अली शाह के कथक गुरू थे।

कथक के मामले में आज के समय में बिरजू महाराज का कोई सानी नहीं है। पिता अच्छन महाराज के साथ महज सात साल की उम्र में ही वह देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर अपनी प्रस्तुति देने लगे थे, लेकिन उनकी पहली एकल प्रस्तुति रही बंगाल में आयोजित मन्मथनाथ गुप्त समारोह में जहाँ उन्होंने शास्त्रीय नृत्य के दिग्गजों के समक्ष अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन किया। तभी उनकी प्रतिभा की झलक लोगों को मिल गई थी और इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

उन्होंने नृत्य के पारंपरिक विषयों में जहाँ बोल्ड और बौद्धिक रचनाओं का समावेश किया वहीं उनकी समसामयिक कार्यों में भी ताजगी कूट कूटकर भरी है। पिता के देहांत के बाद उनके संघर्ष के दिन शुरू हो गए और उनकी गुरु बहन डॉ. कपिला वात्स्यायन उन्हें दिल्ली ले आई।

उन्होंने 13 साल की उम्र में ही दिल्ली के संगीत भारती में नृत्य का प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया। उन्होंने भारतीय कला केंद्र तथा संगीत नाटक अकादमी से संबद्ध कथक केंद्र में भी नृत्य का प्रशिक्षण दिया।

शास्त्रीय नृत्य में बिरजू महाराज फ्यूजन से भी नहीं घबराए। उन्होंने लुई बैंक के साथ रोमियो और जुलियट की कथा को कथक शैली में प्रस्तुत किया। बिरजू महाराज का बालीवुड से भी गहरा नाता रहा है।

उन्होंने कई फिल्मों के गीतों का नृत्य निर्देशन किया। इनमें प्रख्यात फिल्मकार सत्यजीत राय की क्लासिक कृति 'शतरंज के खिलाड़ी' यश चोपड़ा की 'दिल तो पागल है', 'गदर एक प्रेम कथा' तथा संजय लीला भंसाली की फिल्म 'देवदास' का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।

बिरजू महाराज केवल नृत्य में ही सिद्धहस्त नहीं हैं, बल्कि हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत पर भी उनकी गहरी पकड़ है। ठुमरी, दादरा, भजन और गजल गायकी में उनका कोई जवाब नहीं है। बिरजू महाराज कई वाद्य यंत्र भी बखूबी बजाते हैं। तबला पर उनकी खास पकड़ है। इसके अलावा वह सितार, सरोद और सारंगी भी अच्छा बजाते हैं। खास बात यह है कि उन्होंने इन वाद्य यंत्रों को बजाने की विधिवत शिक्षा नहीं ली है। वह संवेदनशील कवि और चित्रकार भी हैं।

उन्हें भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण (1986) और कालीदास सम्मान समेत अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। उन्हें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और खैरागढ़ विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की मानद उपाधि भी मिल चुकी है।

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