पति, पत्नी और ‘सियासत के वो’...

-खुशदीप सहगल

Webdunia
बुधवार, 2 अप्रैल 2014 (19:16 IST)
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चुनाव प्रचार में अब गलियों या सड़कों पर शोर-शराबा नहीं सुना जाता। पहले के चुनावों की तरह अब लाउडस्पीकर्स पर देशभक्ति के गीत भी फुल वॉल्यूम पर नहीं सुने जाते। अब देश में लोग ज़्यादा पढ़-लिख गए हैं। इसलिए अख़बार, न्यूज़ चैनल्स, न्यूज़ पोर्टल्स और सोशल मीडिया की अहमियत बढ़ गई है। सियासत करने वाले और इसमें दिलचस्पी रखने वाले, चुनाव से जुड़ी मीडिया की हर छोटी-बड़ी ख़बर पर नज़रें गड़ाए बैठे हैं। नेता पसंद के हों या विरोधी खेमे के, उनके मुंह से निकलने वाले एक-एक शब्द पर गौर किया जा रहा है। देश की सियासत में पुरुषों का वर्चस्व है। शायद यही वजह है कि आजकल आम घरों में भी पुरुष टेलीविजन देखने में ज़्यादा वक्त खपा रहे हैं।

गुजरात में पतिदेव टीवी पर नरेंद्र मोदी की ख़बरें देखने में इतने व्यस्त हैं कि पत्नियां मोदी को ‘वो’ से कम नहीं मान रही हैं। पत्नियों की शिकायत है कि पतिदेव काम से आते ही टीवी पर चुनाव कवरेज देखने में जम जाते हैं। वहां से हटते हैं तो सोशल मीडिया के लिए कंप्यूटर पर जम जाते हैं। ये सिलसिला देर रात तक चलता रहता है। ऐसे में घर या दीन-दुनिया की और किसी बात के लिए पतिदेवों के पास सुध ही नहीं है। छुट्टी वाले दिन भी पतिदेवों की यही दिनचर्या है। कभी-कभार किसी परिचित के यहां पार्टी वगैरहा में भी जाते हैं तो वहां पुरुषों की बातचीत का केंद्र राजनीति के इर्द-गिर्द रहता है। ये स्थिति वैसी ही है जैसे कि फुटबॉल के वर्ल्ड कप के दौरान यूरोप में पतिदेव सब सुध-बुध भुला मैचों में ही डूबे रहते हैं।

अहमदाबाद की एक महिला का कहना है कि उन्होंने पति के चुनावी बुखार को देखते हुए अपना कमरा ही बदल लिया है। जब पतिदेव टीवी पर व्यस्त होते हैं, उस वक्त ये महिला दूसरे कमरे में किताबें पढ़कर या संगीत सुनकर अपना समय बिताती हैं। इन महिला का ये भी कहना है पहले वो पति के साथ डिनर के बाद टहलने के लिए भी जाती थीं। लेकिन अब वो भी बंद है।

संचार के इस इंटरनेटी युग में ख़बरों का प्रवाह भी बहुत तेज़ हो गया है। उम्मीदवारों का निजी लेखा-जोखा और पिछले चुनावों के आंकड़े अब जिस तरह सुलभता से उपलब्ध हैं, वो भी खासा असर डाल रहा है। पल पल बदलती ख़बरों की ये बमबारी राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को शाब्दिक तौर पर आक्रामक भी बना रही है। उनके लिए इस वक्त परिवार से ज़्यादा पॉलिटिक्स अहम हो गई है।

हालांकि सियासत में दिलचस्पी रखने वाले पुरुष अपने बचाव में मज़ेदार दलील भी दे रहे हैं। उनका कहना है कि जब पत्नियां सास-बहू जैसे टीवी सीरियल्स देखते हुए सब कुछ भूल सकती हैं, तो वो चुनाव कवरेज देखने के लिए ऐसा क्यों नहीं कर सकते। चुनाव प्रचार के दौरान किसी नेता का कोई बयान आता है और विरोधी उस पर पलटवार करता है तो टीवी के किसी मेलोड्रामा से कम मज़ा नहीं आता। पतियों का ये व्यवहार देखकर पत्नियों ने भी मान लिया है कि 16 मई को चुनाव नतीजे आने के बाद ही उनके घर का रूटीन पुरानी पटरी पर लौटेगा।

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