हम लड़की वाले हैं जनाब!

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- प्रिया सुधीर शुक्ल

आज हर क्षेत्र में लड़कियाँ मौजूद हैं, सर्वगुण संपन्न हैं, आत्मनिर्भर हैं। रिश्ते की जब बात आती है, तो दोनों ही पक्षों की भावनाओं का महत्व है आज। अब लड़की ही नहीं, लड़का भी मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार रहे कि शायद शिक्षा, पसंद-नापसंद, व्यवहार को लेकर वह भी एक लड़की द्वारा नकारा जा सकता है।

शीर्षक पढ़कर कुछ अटपटा-सा लग रहा होगा क्योंकि ऐसी भाषा तो अक्सर लड़के वालों (वर पक्ष) की होती है। पर आज वो दिन हवा हुए, जब लड़की के अभिभावक अपनी बेटी के लिए एक अदद वर की तलाश में भूख, प्यास तक भूल जाते थे। अपनी बेटी के हाथ पीले करना उनके जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा बन जाया करती थी।

आज के परिप्रेक्ष्य में सारी परिभाषाएँ नए सिरे से गढ़ी जा रही हैं। जहाँ हर लड़की के पिता का भाल गर्वोन्नत है और हर माँ ने अपनी बेटी को ससुराल भेजना दूसरे क्रम पर रखा है, पहले क्रम पर उसकी लाड़ली की अपने आकांक्षाएँ, उसके अपने स्वतंत्र विचार रखे हैं। माता-पिता लड़की के भविष्य को लेकर आशान्वित हैं, चिंतित नहीं। आज बेटी पर किसी तरह का दबाव नहीं।

आज वह भी तय कर सकती है कि उसका भावी पति कैसा होगा? उसे ड्राइंग रूम में बैठे लड़के (भावी वर महोदय) और उसके माता-पिता के समक्ष काँपते हाथों में ट्रे लिए नाश्ता ले जाने में कोई दिलचस्पी नहीं या आज वो इसके लिए बाध्य भी नहीं।

आखिरकार रिश्ते बड़ों की सहमति से ही तय होते हैं। पर उसमें लड़की का दखल एक सुखद बदलाव है। पर लड़के वाले होने की झूठी अकड़ का चलन पूरी तरह नहीं मिटा है। अभी भी हमारे आसपास ये लड़के वाले अपनी दोहरी मानसिकता का चेहरा लिए घूमते नजर आ ही जाएँगे।

पिछले दिनों की ही बात है, मैं अपनी एक परिचित की बेटी के रिश्ते के संदर्भ में कुछ परिवारों से मिली। दो-एक अनुभव तो बहुत ही कटु रहे। तिरस्कृत-सा बर्ताव मिलने पर मन गहरे आहत हुआ। और मैंने उन परिवारों से लौटते समय अपनी नाराजगी को अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्त भी किया।

फोन पर संपर्क कर लेने के बावजूद एक परिवार के यहाँ तो दरवाजा खोलते ही पूछा- कैसे आए हैं? जब फोन पर की गई चर्चा का जिक्र किया तो उनका अगला प्रश्न था (दरवाजे पर ही) फोटो, पत्रिका लाए हों तो दे जाइए। हमसे लिफाफा लेने के बाद उन्होंने कहा- अभी पंद्रह दिनों तक तो हम व्यस्त हैं, तो उसके बाद ही आगे की बात की जाएगी।

आश्चर्य होता है कि इतना शुष्क और रूखा व्यवहार करते लोग शरमाते भी नहीं। मेरी तो दोबारा संपर्क करने की इच्छा नहीं थी, पर अपनी परिचित की खातिर धैर्य दिखाते हुए बीस दिन गुजर जाने पर मैं दोबारा उनके घर पहुँची। पर उन्होंने लापरवाही से मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, अरे इतने रिश्ते आ रहे हैं, आकाश के लिए किस-किसकी पत्रिका मिलवाएँ? समझ में नहीं आ रहा है। आप अभी तो फोटो व पत्रिका ले जाइए। बाद में देखेंगे। उनका जवाब सुनकर मुझे लगा अपने बेटे के श्रेष्ठ होने को भुनाती हुई ये महिला वधू तलाश रही है या लड़की वालों के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचा रही है।

एक अनुभव यह रहा है कि लड़का अपने अभिभावक, बहन, जीजाजी सबके साथ मेरी मौसेरी बहन को देखने आया (कुंडली पहले ही मिला चुके थे)। बहुत देर तक बातें होती रहीं। लड़के ने भी मेरी बहन से बातें कीं। करीब-करीब सभी की सहमति हो चुकी थी। घर में खुशी का माहौल था। हम उनके अगले फोन का इंतजार कर रहे थे। दो दिन बाद उनका फोन आया, राहुल एक बार और उस लड़की से मिलना चाहता है। उसके बाद ही फाइनल हाँ कहेंगे।

इसका मतलब साफ है कि लड़की की भावनाओं को कौन पूछता है? हर बार तय करने का हक सिर्फ लड़के वालों का होता है। लड़की के अभिभावक तो कठपुतली से होते हैं। कोई हाँ कर दे तो खुश, ना हो जाए तो फिर एक नए सिरे से रिश्ते की तलाश। लेकिन यह सब अब ज्यादा दिन नहीं चलेगा। आज हर क्षेत्र में लड़कियाँ मौजूद हैं, सर्वगुण संपन्न हैं, आत्मनिर्भर हैं।

रिश्ते की जब बात आती है, तो दोनों ही पक्षों की भावनाओं का महत्व है आज। अब लड़की ही नहीं, लड़का भी मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार रहे कि शायद शिक्षा, पसंद-नापसंद, व्यवहार को लेकर वह भी एक लड़की द्वारा नकारा जा सकता है। विवाह के समय भी ये तथाकथित लड़के वाले उर्फ बाराती खुद को बढ़-चढ़कर दिखाने के लिए कई घटिया हरकतें करते हैं।

भद्दे मजाक, तरह-तरह की फरमाइशें, लड़की वालों द्वारा की गई व्यवस्था पर बेवजह नाराजगी या खाना पसंद न आने की शिकायत। लड़की वाले अपनी हैसियत के अनुसार या कई बार उससे ज्यादा अच्छी आवभगत और व्यवस्था रखते हैं। पर इस तरह का बर्ताव उनके सारे किए-धरे पर पानी फेर देता है। बेटी की बिदाई खुशी-खुशी हो जाए, इस दबाव में कोई चाहकर भी ऊपर से कुछ नहीं बोल पाता।

माता-पिता को चाहिए कि वे अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहें, पर साथ ही अपनी बेटी की भावनाओं का भी सम्मान करें। किसी लड़के ने यदि रिश्ते के लिए हाँ कह दिया हो तो उसे अपना भाग्य मानकर अपनी बेटी की हाँ या ना को नजरअंदाज न करें, उससे भी राय जानें।

विवाह के इस पवित्र बंधन को बेड़ियों से मुक्त रखें। लड़के वाले अहं भाव और लड़की वाले बेचारगी को भूल जाएँ। बेटे की तरह ही बेटी का जन्म सुखद है। हर माता-पिता गर्व से कहें- हम लड़की वाले हैं जनाब।

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