अपने स्वभाव को बनाएं प्रकृति के अनुकूल

प्राकृतिक रूप से अनुकूल हो आपका स्वभाव

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किसी मनुष्य को जो होना चाहिए और वह जो है, उसके बीच में सदा फर्क रहा है। मनुष्य 'जैसा है' को 'जैसा होना चाहिए' के नजदीक लाने का जो प्रयास करता है वही उसका आध्यात्मिक विकास है।

अतः पहला सवाल यह है कि मनुष्य को कैसा होना चाहिए? इसके साथ जुड़ा सवाल यह है कि धरती पर मनुष्य के जीवन का मूल उद्देश्य क्या है? इस उद्देश्य के अनुरूप ही मनुष्य का जीवन होना चाहिए।

पृथ्वी पर लाखों किस्म के जीव हैं। जीवन लाखों रूप में धरती पर प्रकट हुआ है। पर इन लाखों जीवन रूपों में मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जीव है जो नियोजित ढंग से अन्य जीवों की रक्षा के उपाय करने में सक्षम है। इस क्षमता से ही मनुष्य का धरती पर मूल लक्ष्य निर्धारित होता है।

मनुष्य का मूल उद्देश्य सभी मनुष्यों सहित अन्य सभी जीवों की रक्षा करना है व दुख-दर्द कम करना है। इस तरह मनुष्य की मूल भूमिका रक्षक की है। आज की ही नहीं, आने वाली पीढ़ियों के जीवन की रक्षा के बारे में उसे सोचना है और उसमें यह सामर्थ्य भी है, यह योग्यता भी है। अतः मनुष्य को मूलतः एक रक्षक का जीवन जीना चाहिए।

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क्या ही अच्छा होता यदि इस भूमिका के अनुकूल स्वभाव प्राकृतिक रूप से सभी मनुष्यों को मिल जाता है। यदि ऐसा होता तो सभी मनुष्य रक्षक की भूमिका निभाते और एक दूसरे के दुख-दर्द के सच्चे हितैषी होते।

इस स्थिति में पृथ्वी पर सभी जीवों को पनपने का भरपूर अवसर मिलता। पर्यावरण की पूरी रक्षा होती व भावी पीढ़ियों के मनुष्यों और अन्य जीवों की जरूरतों का भी पूरा ध्यान रखा जाता। पर अफसोस कि मनुष्य को उसके अनुकूल स्वभाव प्राकृतिक रूप से नहीं मिलता है। यह उसे धीरे-धीरे विकसित करना पड़ता है। अतः अपने जीवन को मनुष्य के मूल उद्देश्य के नजदीक ले जाने का प्रयास करते रहना ही आध्यात्मिक विकास है।

चाहे यह सफर धीरे-धीरे ही तय हो, चाहे भटकाव के मौके भी आए, चाहे सफलता कम मिले, पर जब तक कोई व्यक्ति सच्ची भावना से मनुष्य के वास्तविक लक्ष्य की ओर बढ़ने का प्रयास कर रहा है तो वह आध्यात्मिक विकास पर अग्रसर है।

मनुष्य को अपनी जरूरतों के अनुकूल विश्व से ग्रहण करना चाहिए व इससे आगे कोई लालसा नहीं करना चाहिए। यही सादगी का जीवन है। इस सादगी को अपनाए बिना मनुष्य रक्षक की भूमिका नहीं निभा सकता है।

जब तक उसकी लालसा अपने लिए निरंतर अधिक प्राप्त करने की बनी रहती है, तब तक वह अन्य मनुष्यों व अन्य जीवों का हितैषी नहीं बन सकता क्योंकि वह उसके हिस्सा भी छीनना चाहता है। पर जैसे ही वह सादगी अपनाकर अपनी आवश्यकताओं को समेट लेता है, वैसे ही उसके लिए रक्षक की मूल भूमिका निभाना संभव हो जाता है। इस प्रकार यह प्रयास ही आध्यात्मिक विकास है।

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