पंथी नृत्य से गुरु घासीदास की आराधना

छत्तीसगढ़ का पंथी नृत्य

Webdunia
- ललितदास मानिकपुरी
SUNDAY MAGAZINE

सतनाम के हो बाबा, पूजा करौं सतनाम के।
सतकाम के हो बाबा, पूजा करौं जैतखाम के ॥

धक तिन...धधक तिन...मांदर की थाप, लय में लय मिलाती झाँझ की झनकार, बाबा की जयकार और शुरू होता है 'पंथी'। सत्यनाम का सुमिरन करते हुए गोल घेरे में खड़े पंथी दल के नर्तक संत गुरु घासीदास बाबा की स्तुति में यह गीत शुरू करते हैं। हर साल यह नृत्य घासीराम जयंती के अवसर पर प्रस्तुत किया जाता है जो इस साल 18 दिसंबर को मनाई गई। मुख्य नर्तक पहले गीत की कड़ी उठाता है जिसे अन्य नर्तक दोहराते हुए नाचना शुरू करते हैं।

प्रारंभ में गीत, संगीत और नृत्य की गति धीमी होती है। जैसे-जैसे गीत आगे बढ़ता है और मृदंग की लय तेज होती जाती है, वैसे-वैसे पंथी नर्तकों की आंगिक चेष्टाएँ तेज होती जाती हैं। गीत के बोल और अंतरा के साथ ही नृत्य की मुद्राएँ बदलती जाती हैं, बीच-बीच में मानव मीनारों की रचना और हैरतअंगेज कारनामें भी दिखाए जाते हैं।

इस दौरान भी गीत, संगीत व नृत्य का प्रवाह बना रहता है और पंथी का जादू सिर चढ़कर बोलने लगता है। प्रमुख नर्तक बीच-बीच में 'अहा, अहा...' शब्द का उच्चारण करते हुए नर्तकों का उत्साहवर्धन करता है। गुरु घासीदास बाबा का जयकारा भी लगाया जाता है। थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद प्रमुख नर्तक सीटी भी बजाता है जो नृत्य की मुद्राएँ बदलने का संकेत है।

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नृत्य का समापन तीव्र गति के साथ चरम पर होता है। इस नृत्य की तेजी, नर्तकों की तेजी से बदलती मुद्राएँ एवं देहगति दर्शकों को आश्चर्यचकित कर देती है। पंथी नर्तकों की वेशभूषा सादी होती है। सादा बनियान, घुटने तक साधारण धोती, गले में हार, सिर पर सादा फेटा और माथे पर सादा तिलक। अधिक वस्त्र या श्रृंगार इस नर्तकों की सुविधा की दृष्टि से अनुकूल भी नहीं।

हाँ, समय के साथ वेशभूषा में कुछ परिवर्तन जरूर आया है। अब रंगीन कमीज और जैकेट भी पहने जा रहे हैं। मांदर एवं झाँझ पंथी के प्रमुख वाद्ययंत्र होते हैं। अब बेंजो, ढोलक, तबला और केसियो का भी प्रयोग होने लगा है। पंथी छत्तीसगढ़ का एक ऐसा लोकनृत्य है जिसमें आध्यात्मिकता की गहराई है तो भक्त की भावनाओं का ज्वार भी है। इसमें जितनी सादगी है उतना ही आकर्षण और मनोरंजन भी है। पंथी की यही विशेषताएँ इसे अनूठा बनाती हैं।

वास्तव में 'पंथी' नृत्य धर्म, जाति, रंग-रूप आदि के आधार पर भेदभाव, आडंबरों और मानवता के विरोधी विचारों का संपोषण करने वाली व्यवस्था पर हजारों वर्षों से शोषित लोगों और दलितों का करारा किंतु सुमधुर प्रहार है। यह छत्तीसगढ़ की सतनामी जाति के लोगों का पारंपरिक नृत्य है जो सतनाम पंथ के पथिक हैं। इस पंथ की स्थापना छत्तीसगढ़ के महान संत गुरु घासीदास ने की थी।

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उनका जन्म सन्‌ 1756 में रायपुर जिले के गिरौद ग्राम में हुआ था और उनकी मृत्यु 1850 में भंडार ग्राम में हुई। ये दोनों ग्राम गिरौदपुरी और भंडारपुरी के नाम से प्रसिद्ध हुए। यहाँ सतनाम पंथ के धर्मगुरुओं की वंशगद्दी परंपरा प्रचलित है जहाँ प्रतिवर्ष गुरुदर्शन मेले में लाखों की संख्या में बाबा के अनुयायी पहुँचते हैं। तीन दिनों के मेले में यहाँ पंथी की निराली छटा बिखरती है।

संत गुरु घासीदास ने समाज में व्याप्त कुप्रथाओं का बचपन से विरोध किया। उन्होंने समाज में व्याप्त छुआछूत की भावना के विरुद्ध 'मनखे-मनखे एक समान' का संदेश दिया। बाबा की जयंती 18 दिसंबर से माह भर व्यापक उत्सव के रूप में समूचे राज्य में पूरी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाई जाती है। इस उपलक्ष्य में गाँव-गाँव में मड़ई-मेले का आयोजन होता है।

इसमें सतनाम के प्रतीक स्तंभ 'जैतखाम' पर पालो यानी नया श्वेत ध्वजा फहराया जाता है। इस दौरान 'जैतखाम' के आस-पास बड़े उत्साह के साथ 'पंथी' नृत्य किया जाता है। इसमें गुरु घासीदास बाबा के वाणी-वचनों, उनके जीवन चरित्र और उनके प्रति अपनी भावनाओं को विशेष गीत और नृत्य के साथ पारंपरिक ढंग से गाया जाता है।

गुरु घासीदास के पंथ से ही 'पंथी' नृत्य का नामकरण हुआ है। 'पंथी' गीत आम छत्तीसगढ़ी बोली में होते हैं जिनके शब्दों और संदेशों को साधारण से साधारण व्यक्ति भी सरलता से समझ सकता है। पंथी नृत्य जितना मनमोहक एवं मनोरंजक है, इसमें उतनी ही आध्यात्मिकता की गहराई और भक्ति का ज्वार भी है।

छत्तीसगढ़ी बोली नहीं जानने-समझने वाले देश-विदेश के लोग भी देवदास बंजारे और उनके साथियों का पंथी देख खो जाते थे। बंजारे अब नहीं रहे लेकिन यह उनकी और उनके साथियों की साधना, परिश्रम और लगन का परिणाम है कि 'पंथी' आज देश-विदेश में प्रतिष्ठित है।

छत्तीसगढ़ में तो हर सतनामी-बहुल बस्ती में पंथी नर्तकों की टोलियाँ बन गई हैं। कई प्रतिभावान युवा इस नृत्य की साधना में जुटे हुए हैं, हालाँकि देवदास बंजारे जैसी ख्याति किन्हीं अन्य को अब तक नहीं मिली। 'पंथी' सतनाम पंथ की सरस काव्य धारा है। संत गुरु घासीदास बाबा की आराधना का साधन है। सतनाम पंथ के पथिकों का सहारा है।

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