हमारा कर्तव्य क्या है?

परोपकार ही पुण्य है....

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कर्तव्य क्या है? कोई कार्य करने से पहले यह जानना आवश्यक है। विभिन्न जातियों में, विभिन्न देशों में इस कर्तव्य के संबंध में भिन्न-भिन्न अवधारणाएं हैं। एक मुसलमान कहता है कि जो कुछ कुरान शरीफ में लिखा है, वही मेरा कर्तव्य है। एक हिन्दू कहता है जो मेरे वेदों में लिखा है, वही मेरा कर्तव्य है। एक ईसाई की दृष्टि में जो बाइबल में लिखा है वही उसका कर्तव्य है। स्पष्ट है कि जीवन में अवस्था, काल, जाति के भेद से कर्तव्य के संबंध में भी धारणाएं बहुविध होती हैं।

सामान्यतः यह देखा जाता है कि सत्पुरुष अपने विवेक के आदेशानुसार कर्म किया करते हैं। परंतु वह क्या है जिससे एक कर्म कर्तव्य बन जाता है।

यदि एक मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य को बंदूक से मार डाले, तो उसे यह सोचकर दुख होगा कि उसने कर्तव्य भ्रष्ट होकर अनुचित कार्य कर डाला, परंतु यदि वही मनुष्य एक फौज के सिपाही की हैसियत से एक नहीं बल्कि बीस आदमियों को भी मार डाले तो उसे यह सोचकर प्रसन्नता होगी कि उसने अपना कर्तव्य निभाया।

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स्पष्ट है कि केवल बाह्य कार्यों के आधार पर कर्तव्य की व्याख्या करना असंभव है, परंतु आंतरिक दृष्टिकोण से कर्तव्य की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि यदि हम किसी कर्म द्वारा भगवान की ओर बढ़ते हैं, तो वह सत्कर्म है, और वही हमारा कर्तव्य है।

परंतु जिस कर्म द्वारा हम नीचे गिरते हैं, वह बुरा है। वह हमारा कर्तव्य नहीं है। सभी युगों में समस्त संप्रदायों और देशों के मनुष्यों द्वारा मान्य कर्तव्य का सार्वभौमिक भाव यही है- 'परोपकारः पुण्याय, पापाय, परपीड़नम्‌ अर्थात परोपकार ही पुण्य है और दूसरों को दुख पहुंचाना पाप है।

अतः अपनी सामाजिक अवस्था के अनुरूप एवं हृदय तथा मन को उन्नत बनाने वाला कार्य ही हमारा कर्तव्य है। दूसरे शब्दों में कर्तव्यनिष्ठा हमारी आध्यात्मिक उन्नति में सहायक होती है।


सबसे श्रेष्ठ कर्म यह है कि जिस विशिष्ट समाज पर हमारा जो कर्तव्य है, उसे भली-भांति निबाहें। पहले जन्म से प्राप्त कर्तव्य को करना चाहिए और उसके बाद सामाजिक जीवन में हमारे पद के अनुसार जो कर्तव्य हो उसे संपन्न करना चाहिए।

प्रत्येक व्यक्ति जीवन में किसी न किसी अवस्था में अवस्थित है। उसके लिए उसी अवस्थानुसार कर्म करना सबसे बड़ा कर्तव्य है। कोई भी कर्तव्य उच्च या निम्न नहीं होता। जरूरी यह देखना है कि उस कर्तव्य का पालन किस तरह किया जाता है।

जीवन की किसी भी अवस्था में कर्मफल पर आसक्ति रखे बिना यदि कर्तव्य उचित रूप से किया जाए तो आत्मिक शांति महसूस होती है। अनासक्त होकर एक स्वतंत्र व्यक्ति की तरह कार्य करना और समस्त कर्म भगवान को समर्पित कर देना ही असल में हमारा एक मात्र कर्तव्य है।

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