ख्वाबों के इस सावन को

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सहबा जाफरी

कोई अब्र उड़े, कोई कली खिले
कोई शाम सुहानी घिरी चले
कहीं सावन रुत के खजाने हो
कहीं चंदा शाने-शाने हो

किसी कौस की तिरछी परचम पर
कोई बादल वारी जाता हो
किसी वादी के इक कोने में
कोई चरवाहा कुछ गाता हो

कहीं मीठे सुर में कोयल भी
कुछ गुनगुन गुनगुन गाती हो
कोई बदली आकर धीमे से
कुछ पाज़ेबों से टकराती हो

फिर मेघा आकर धीरे से
सूरज के नैना टँकता हो
कोई राँझा जैसे चुपके से
इक हीर को दिल में रखता हो

सारे रंग ख्यालों को
ए काश! कोई तस्वीर मिले
ख्वाबों के इस सावन को
इस बार कोई ताबीर मिले।
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