प्रेम : एक श्रृंखला

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प्रयाग शुक्ल

( एक)
पर्वत से लुढ़कने,
और फिर चढ़ने,
कहीं अधबीच में
एक चट्‍टान से उलझी हुई
शाखा को पकड़ने,
और फिर फिसलने के
क्रम में,
किसी फूल की सुगंध में -
कुछ देर विचरने का
अनुभव!

कलरव
चिड़ियों का।
घनी छाया का आश्वासन
अगले कदम पर।
एकदम निर्मल आकाश
में श्वास!

( दो)
दोनों किनारों के बीच
मँझधार
में एक नाव।
शांत निश्चल पल।
जल ही जल
चारों ओर।
धुँधलाता हुआ
हर तरफ का शोर।
खुलती हुई
खिड़कियाँ
दिशाओं की!

( तीन)
नींद में एक मुख,
ढका हुआ
झीने वसन में,
झीना।
और उसके भीतर के
सपनों की तहें।
कुछ भी न कहें।
उसी अनजाने सुख
में रहें -
भीतर तक मौन!!

( चार)
चपल चंचल एक गति,
जैसा कि हिरण हवा में
अश्व एक,
पैरों को उठाए-
उड़ती चली जाती
चिड़िया
किसी घाटी में।

विद्यतु तरंग।

दौड़ते चले आते
इसी ओर
कई-कई रंग
फिर उनमें से
करता विलग
एक अपने को,
आ रहता सामने!

( पाँच)
एक मिली हुई निधि।
बार बार आ रहती
निकट। हर करवट।
कोई विधि
जिससे थम जाता है जलधि -
और फिर उठता है
ज्वार!!
अपार!
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