मुहूरत निकल जाएगा

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- गोपालदास नीर ज

देखती ही न दर्पण रहो प्राण! तुम
प्यार का यह मुहूरत निकल जाएगा।
साँस की तो बहुत तेज रफ्तार है,
और छोटी बहुत है मिलन की घड़ी,
आँजते-आँजते ही नयन बावरे,
बुझ न जाए उम्र की फुलझड़ी,

सब मुसाफिर यहाँ, सब सफर पर यहाँ,
ठहरने की इजाजत किसी को नहीं,
केश ही तुम न बैठी गुँथाती रहो,
देखते-देखते चाँद ढल जाएगा।

देखती ही न दर्पण रहो प्राण! तुम
प्यार का यह मुहूरत निकल जाएगा।

झूमती गुनगुनाती हुई यह हवा,
कौन जाने कि तूफान के साथ हो,
क्या पता इस निदासे गगन के तले,
यह हमारे लिए आख़िरी रात हो,

जिंदगी क्या समय के बियाबान में,
एक भटकती हुई फूल की गंध है,
चूड़ियाँ ही न तुम खनखनाती रहो,
कल दिए को सवेरा निगल जाएगा।

देखती ही न दर्पण रहो प्राण! तुम
प्यार का यह मुहूरत निकल जाएगा।

यह महकती निशा, यह बहकती दिशा,
कुछ नहीं है, शरारत किसी शाम की,
चाँदनी की चमक, दीप की यह दमक,
है, हँसी बस किसी एक बेनाम की,

है लगी होड़ दिन-रात में प्रिय! यहाँ,
धूप के साथ लिपटी हुई छाँह है,
वस्त्र ही तुम बदलकर न आती रहो,
यह शर्मसार मौसम बदल जाएगा।

देखती ही न दर्पण रहो प्राण! तुम
प्यार का यह मुहूरत निकल जाएगा।

होठ पर जो सिसकते पड़े गीत ये,
एक आवाज के सिर्फ मेहमान है,
ऊँघती पुतलियों में जड़े जो सपन,
वे किन्हीं आँसुओं से मिले दान हैं,

कुछ न मेरा न कुछ है तुम्हारा यहाँ,
कर्ज के ब्याज पर सिर्फ हम जी रहे,
माँग ही तुम न बैठी सजाती रहो,
आ गया जो महाजन न टल पाएगा।

देखती ही न दर्पण रहो प्राण! तुम
प्यार का यह मुहूरत निकल जाएगा।

कौन श्रृंगार पूरा यहाँ कर सका?
सेज जो भी सजी सो अधूरी सजी,
हार जो भी गुँथा सो अधूरा गुँथा,
बीन जो भी बजी सो अधूरी बजी,

हम अधूरे, अधूरा हमारा सृजन,
पूर्ण तो एक बस प्रेम ही है यहाँ,
काँच से ही न नजरें मिलाती रहो,
बिंब का मूक प्रतिबिंब छल जाएगा।

देखती ही न दर्पण रहो प्राण! तुम
प्यार का यह मुहूरत निकल जाए।

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