हिंदू धर्म : क्या मूर्ति पूजा करना चाहिए?

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।।ॐ।। ।।यो भूतं च भव्‍य च सर्व यश्‍चाधि‍ति‍ष्‍ठति‍।
स्‍वर्यस्‍य च केवलं तस्‍मै ज्‍येष्‍ठाय ब्रह्मणे नम:।।-अथर्ववेद 10-8-1
भावार्थ : जो भूत, भवि‍ष्‍य और सबमें व्‍यापक है, जो दि‍व्‍यलोक का भी अधि‍ष्‍ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है। वहीं हम सब के लिए प्रार्थनीय और वही हम सबके लिए पूज्जनीय है।

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वेद काल में न तो मंदिर थे और न ही मूर्ति क्योंकि इसका इतिहास में कोई साक्ष्य नहीं मिलता। इन्द्र और वरुण आदि देवताओं की चर्चा जरूर होती है, लेकिन उनकी मूर्तियां थीं इसके भी साक्ष्य नहीं मिलते हैं। भगवान कृष्ण के काल में लोग इंद्र नामक देवता से जरूर डरते थे। कृष्ण ने ही उक्त देवता के डर को लोगों के मन से निकाल था। इसके अलावा हड़प्पा काल में देवताओं (पशुपति- शिव) की मूर्ति का साक्ष्य मिला है, लेकिन निश्चित ही यह आर्य और अनार्य का मामला रहा होगा।

पूर्व वैदिक का ल मे ं वैदि क समाज इकट्ठा होकर एक ही वेदी पर खड़ा रहकर ब्रह्म (ईश्वर) के प्रति अपना समर्पण भाव व्यक्त करते थे। इसके अलावा अथर्ववेद की रचना के बाद वे यज्ञ के द्वारा भी ईश्वर और प्रकृति तत्वों का आह्वान और प्रार्थना करते थे। बाद में धीरे-धीरे लोग वेदों का गलत अर्थ निकालने लगे। हिन्दू धर्म मूलत: अदैत्वाद और एकेश्वरवाद का समर्थक है जिसका मूल ऋग्वेद, उपनिषद और गीता में मिलता है।

शिवलिंग की पूजा का प्रचनल पुराणों की देन है। शिवलिंग पूजन के बाद धीरे-धीरे नाग और यक्षों की पूजा का प्रचलन हिंदू-जैन धर्म में बढ़ने लगा। बौद्धकाल में बुद्ध और महावीर की मूर्ति‍यों को अपार जन-समर्थन मि‍लने के कारण विष्णु, राम और कृष्ण की मूर्तियां बनाई जाने लगी।

न तस्य प्रतिमा:
' न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यश:। हिरण्यगर्भस इत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान जात: इत्येष:।।'- यजुर्वेद 32वां अध्याय।

अर्थात, जिस परमात्मा की हिरण्यगर्भ, मा मा और यस्मान जात आदि मंत्रो से महिमा की गई है उस परमात्मा (आत्मा) का कोई प्रतिमान नहीं। अग्‍नि‍ वही है, आदि‍त्‍य वही है, वायु, चंद्र और शुक्र वही है, जल, प्रजापति‍ और सर्वत्र भी वही है। वह प्रत्‍यक्ष नहीं देखा जा सकता है। उसकी कोई प्रति‍मा नहीं है। उसका नाम ही अत्‍यन्‍त महान है। वह सब दि‍शाओं को व्‍याप्‍त कर स्‍थि‍त है।- यजुर्वेद

अमूर्त है वह-
केनोपनिषद में कहा गया है कि हम जिस भी मूर्त या मृत रूप की पूजा, आरती, प्रार्थना या ध्यान कर रहे हैं वह ईश्‍वर नहीं हैं, ईश्वर का स्वरूप भी नहीं है। जो भी हम देख रहे हैं-जैसे मनुष्‍य, पशु, पक्षी, वृक्ष, नदी, पहाड़, आकाश आदि। फिर जो भी हम श्रवण कर रहे हैं- जैसे कोई संगीत, गर्जना आदि। फिर जो हम अन्य इंद्रियों से अनुभव कर रहे हैं, समझ रहे हैं उपरोक्त सब कुछ 'ईश्वर' नहीं है, लेकिन ईश्वर के द्वारा हमें देखने, सुनने और साँस लेने की शक्ति प्राप्त होती है। इस तरह से ही जानने वाले ही 'निराकार सत्य' को मानते हैं। यही सनातन सत्य है।

स्‍पष्‍ट है कि‍ वेद के अनुसार ईश्‍वर की न तो कोई प्रति‍मा या मूर्ति‍ है और न ही उसे प्रत्‍यक्ष रूप में देखा जा सकता है। कि‍सी मूर्ति‍ में ईश्‍वर के बसने या ईश्‍वर का प्रत्‍यक्ष दर्शन करने का कथन वेदसम्‍मत नहीं है। जो वेदसम्मत नहीं वह धर्मविरुद्ध है।

भगवान कृष्ण भी कहते हैं- 'जो परमात्मा को अजन्मा और अनादि तथा लोकों का महान ईश्वर, तत्व से जानते हैं वे ही मनुष्यों में ज्ञानवान है। वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। परमात्मा अनादि और अजन्मा है, परंतु मनुष्‍य, इतर जीव-जंतु तथा जड़ जगत क्या है? वे सब के सब न अजन्मा है न अनादि। परमात्मा, बुद्धि, तत्वज्ञान, विवेक, क्षमा, सत्य, दम, सुख, दुख, उत्पत्ति और अभाव, भय और अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति, अप‍कीर्ति ऐसे ही प्राणियों की नाना प्रकार की भावनाएं परमात्मा से ही होती है।-भ. गीता-10-3,4,5।

जब भगवान कृष्ण कहते हैं कि परमात्मा अजन्मा है और अमूर्त है फिर उसकी मूर्ति कैसे बन सकती है। यह सही भी है कि आज तक परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं बनी है। देवी, देवताओं, पितरों, गुरुओं और भगवानों की मूर्ति बनी है।

ओ मा ई गॉ ड मे ं ए क संवा द ह ै क ि लोगों से उनका धर्म छीनोन े त ो वे तुम्हें अपना धर्म बना लेंगे। आज तक दुनिया में यही होता आया है अवतारियों ने लोगों से उनका अंधविश्वास छ ीनकर उन्हें वेद के सच्चे मार्ग पर चलने का रास्ता दिखाया तो लोगों ने उस मार्ग पर चलने क े बजा य उन अवतारियों को ही पूजना शुरू कर दिया। भगवान बुद्ध ने कहा था कि मेरी मूर्ति बनाकर मुझे पूजना मत लेकिन आज सबसे ज्यादा मूर्तियां उन्हीं की बनी हुई है।

तब सवाल यह उठता है कि हिंदू धर्म के धर्मग्रंथ वेद, उपनिषद और गीता भी मूर्ति पूजा को नहीं मानते हैं तो हिंदू क्यों मूर्ति या पत्थर की पूजा करते हैं और इस पूजा का प्रचलन आखिर कैसे, क्यूं और कब हुआ?

हालांकि मूर्तिपूजा के समर्थक कहते हैं कि ईश्वर तक पहुंचने में मूर्ति पूजा रास्ते को सरल बनाती है। मन की एकाग्रता और चित्त को स्थिर करने में मूर्ति की पूजा से सहायता मिलती है। मूर्ति को आराध्य मानकर उसकी उपरासन करने और फूल आदि अर्पित करने से मन में विश्वास और खुशी का अहसास होता है। इस विश्वास और खुशी के कारण ही मनोकामना की पूर्ति होती है। विश्वास और श्रद्धा ह ी जीव न मे ं सफलत ा क ा आधा र है।

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