शिक्षक दिवस पर एक टीचर का ब्लॉग

- रवीन्द्र व्यास

Webdunia
यह बहुत आसान है कि किसी की भी निंदा करके या आलोचना करके पल्ला झाड़ लिया जाए। शिक्षकों का मामला कुछ ऐसा ही है। शिक्षक दिवस की औपचारिकता निभा दी जाती है। इस दिन उन्हें मान-सम्मान दे दिया जाता है। उन्हें शॉल, श्रीफल देकर फोटो खिंचवाया लिया जाता है। इसी दिन उनके पैर छूकर आशीर्वाद ले लिया जाता है।

उनके गुणगान किए जाते हैं, प्रशस्ति पत्र पढ़े जाते हैं। यह तो एक तरीका हुआ है। शिक्षकों पर बात करने का दूसरा तरीका शायद यह है और सबसे आसाना तरीका है कि उनकी खूब आलोचना की जाए कि वे अपनी जिम्मेदारियों से भाग रहे हैं, अपना शिक्षक धर्म का निर्वाह नहीं करते जबकि उनके कंधों पर देश का भविष्य बनाने की जिम्मेदारी है। लेकिन शायद उनकी असल समस्याओं पर कम ही ध्यान दिया जाता है।

इस बार शिक्षक दिवस के मद्देनजर इस बार की ब्लॉग चर्चा के लिए हमने एक मास्टरनी का ब्लॉग चुना है। इस ब्लॉग का नाम है मास्टरनीनामा। इसकी ब्लॉगर हैं शैफाली पांडे। यह ब्लॉग नया है लिहाजा अभी यहाँ कुछ ही पोस्टें पढ़ी जा सकती हैं।

लेकिन पहली पोस्ट पढ़कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस ब्लॉग पर किस तरह की सामग्री या विचार पढ़ने को मिलेंगे। शैफाली संजीदा होकर अपनी इस पहली पोस्ट में शिक्षकों के पक्ष में कुछ विचार रखते हुए कहती हैं कि शिक्षकों की आलोचना क्यों होती है क्या पालकों को अपने बच्चों के लिए समय है। वे कुछ गंभीर सवालों को उठाते हुए उनका मानना है कि शिक्षकों और बच्चों के संदर्भ में हमें सब की जिम्मेदारी को तय करना चाहिए।

यहां पर उन्होंने अपनी तीन बहुत ही प्यारी कविताएं पोस्ट की हैं जो उनके मन के साथ ही बच्चों की दुनिया के साथ उनके संबंधों का मार्मिक पता देती हैं। अपनी एक कविता में वे लिखती हैं

टाफियों के छिलके
चिड़ियों के पर
टूटे हुए खिलौनों के टुकड़े
और एक कागज की नाव
छोटे बच्चों का गांव

कहने की जरूरत नहीं कि वे बच्चों के असली गांव की बात कहती हैं और प्रकारांतर से यह भी कहती हैं कि आज बच्चों का जीवन से उसकी सुंदरता से उसकी स्वप्निलता से वह ‍रिश्ता टूट गया है जो किसी समय बहुत प्रगाढ़ हुआ करता था। आज तो बच्चों को टीवी और वीडियो गेम्स की दुनिया ने बहुत ही एकाकी और कल्पनाहीन बना दिया है। मेरे सपने कविता में भी वे जीवन की छोटी लेकिन मानीखेज बातों को बयां करती हैं। वे लिखती हैं-

हर आवाज पे मचल जाते हैं
हर आहट पे सिमट जाते हैं
मेरे सपने भी फुटपाथ से बच्चों से
कोई प्यार का टुकड़ा फैंके तो
कदमों से लिपट जाते हैं

जाहिर है आत्मकेंद्रित होती जा रही दुनिया पर यह कविता टिप्पणी करती है और प्यार के लिए तरसती बच्चों की दुनिया की झलक देती है। उनके सपनों की झलक तो खैर मिलती ही है। इसी तरह वे दो पल कविता में लिखती हैं-

कुछ पल के लिए चमका था
मेरी आंखों में जुगनू बनकर
उजाले से उसके आज तक
रोशन हैं पैरहन मेरा

आशा की जानी चाहिए कि वे अपने मन और सपनों की दुनिया के साथ एक मास्टरनी के जीवन के ज्यादा व्यापक सवालों से रूबरू कर ाए ंगी।

उनका पता है-

http://mastarni-nama.blogspot.com /

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